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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन ] हिन्दीभापाटीकासहित (३३) २ - नीचगोत्र - इस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है । धर्म और नीति की रक्षा के सम्बन्ध से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है, वह उच्चकुल कहलाता है। जैसेकि इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश आदि । तथा अधर्म और अनीति के पालन से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है वह नीचकुल कहा जाता है । जैसेकि—– वधिककुल, मद्यविक्रे तृकुल, चौरकुल आदि । (८) श्रन्तरायकर्म के ५ भेद होते हैं । इन का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १ - दानान्तरायकर्म - दान की वस्तुएं मौजूद हों, गुणवान् पात्र आया हो, दान का फल जानता हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता । २ - लाभान्तरायकर्म -दाता उदार हो, दान की वस्तुएं स्थित हों, याचना में कुशलता हो, तो भी इस कर्म के उदय से लाभ नहीं हो पाता । ३ - भोगान्तरायकर्म - भोग के साधन उपस्थित हों, वैराग्य न हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर सकता है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाएं उन्हें भोग कहते हैं । जैसेकि - फल, जल, भोजन आदि । ४- उपभोगांत रायकर्ष – उपभोग की सामग्री अवस्थित हो, विरतिरहित हो, तथापि इस कर्म के उदय से जीव उपभोग्य पदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता । जो पदार्थ बार २ भोगे जाएं उहें उपभोग कहते हैं। जैसेकि - मकान, वस्त्र, आभूषण आदि । ५- वीर्यान्तरायक* – वीर्य का अर्थ है - सामर्थ्य । बलवान् रोगरहित एवं युवा व्यक्ति भी इस कर्म के उदय से सत्त्वहीन की भाँति प्रवृत्ति करता है और साधारण से काम को भी ठीक तरह से नहीं कर पाता । बन्ध और उसके हेतु - पुद्गल की वर्गणाएं - प्रकार अनेक हैं, उन में से जो वर्गणाएं कर्म - रूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती हैं, जीव उन्हीं को ग्रहण कर के निज आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्टरूप से जोड़ लेता है अर्थात् स्वभाव से जीव अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कर्म सम्बन्ध वाला होने से मूर्तयत् हो जाने के कारण मूर्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । जैसे दीपक बत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण कर के अपनी उष्णता से उसे ज्वालारूप में परिणत कर लेता है । वैसे ही जीव कापायिक विकार से योग्य पुगलों को ग्रहण कर के उन्हें कर्मरूप में परिणत कर लेता है । आत्मप्रदेशों के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुगलों का यह सम्बन्ध ही बिन्ध कहलाता है । मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग, ये पांच बन्धहेतु हैं । मिध्यात्व का अर्थ है - मिथ्यादर्शन | यह *कर्मों की १५८ उत्तरप्रकृतियों का स्वरूप प्रायः अक्षरशः पं० सुखलाल जी से अनुवादित कर्मग्रन्थ प्रथम भाग से साभार उद्धृत किया गया है । सिकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । (तत्त्वा०८२) + मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगबन्ध हेतवः । (तवा०८।१) । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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