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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। न हो, राजा अकेला हो. इस प्रकार, अवसर, छिद्र और विरह की । पडिजागरमाणे -प्रतीक्षा करता हुआ । विहरति-विहरण करने लगा । : मूलार्थ-तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल नरक से निकल कर इसो मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी को कुक्षि - उदर में पत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर लगभग नवमास पारपूण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया । तदनन्तर बारहवें दिन माता पिता ने उत्पन्न हुए बालक का नन्दिषेण यह नाम रक्खा । नदनन्तर पांच धाय माताओं के द्वारा सुरक्षित नन्दिषेण कुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा, तथा जब वह बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब इसके पिता ने इस को यावत् युवराज पद प्रदान कर दिया. अर्थात् वह युवराज बन गया । तत्पश्चात् राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नन्दिषेण कुमार श्रीदाम राजा को मार कर उसके स्थान में स्वयं मन्त्री आदि के साथ राज्यश्री-राज्यलक्ष्मी का सम्वर्धन कराने तथा प्रजा का पालन पोषण करने की इच्छा करने लगा । तदर्थ कुमार नन्दिषेण महाराज श्रीदाम के अनेक अन्तर. छिद्र तथा विरह की प्रतीक्षा करता हुआ विहरण करने लगा। टीका-प्रस्तुत सूत्र में दुर्योधन चारकपाल - कारागाररक्षक-जेलर का नरक से निकल कर मथुरा नगरी के सुदाम नरेश की बन्धुश्री भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न होने, और समय पाकर जन्म लेने तथा माता पिता के द्वारा नन्दिषेण - यह नामकरण के अनन्तर यथाविधि पालन पोषण से वृद्धि को प्राप्त होने का उल्लेख करने के पश्चात् युवावस्थासम्पन्न युवराज पद को प्राप्त हुए नन्दिषेण की पिता को मरवा कर स्वयं राज्य करने की कुत्सित भावना का भी उल्लेख कर दिया गया है। युवराज नन्दीषण राज्य को शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध करने के लिये ऐसे अवसर की ताक में रहता था कि जिस किसी उपाय से राजा की मृत्यु हो जाए और वह उस के स्थान में स्वयं राज्यसिंहासन पर श्रारूढ हो कर राज्यवैभव का यथेच्छ उपभोग करे । इस कथा -सन्दर्भ से सांसारिक प्रलोभनों में अधिक आसक्त मानव की मनोवृत्ति कितनी दूषित एवं निन्दनीय हो जाती है १, यह समझना कुछ कठिन नहीं है । पिता की पुत्र के प्रति कितनी ममता और कितना स्नेह होता है , तथा उस के पालन पोषण और शिक्षण के लिये वह कितना उत्सुक रहता है ।, तथा उसे अधिक से अधिक योग्य और सुखी बनाने के लिये वह कितना प्रयास करता है , इस का भी प्रत्येक संसारी मानव को स्पष्ट अनुभव है। श्रीदाम नरेश ने पितृजनोचित कर्तव्य के पालन में कोई कमी नहीं रक्खी थी। नन्दिषेण के प्रति उस का जो कर्तव्य था उसे उसने सम्पूर्णरूप से पालन किया था। इधर युवराज नन्दिषेण को भी हर प्रकार का राज्यवैभव प्राप्त था । उस पर सांसारिक सुख. सम्पत्ति के उपभोग में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं था । फिर भी राज्यसिंहासन पर शीघ्र से शीघ्र बैठने की जघन्यलालसा ने उस को पुत्रोचित कर्तव्य से सर्वथा विमुख कर दिया । वह पितृभक्त होने के स्थान में पितृघातक बनने को तैयार हो गया । किसी ने - ऐहिक जघन्य महत्वाकांक्षाएं मनुष्य का महान पतन कर डालती हैं, यह सत्य ही कहा है । __ "-पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति-" यहां पठित जाव -यावत् पद से पृष्ठ १५७ पर पढ़े गए -तंजहा खौरधातीर १ मज्जण. २ मण्डण ३ कोलावण-से लेकर--सुईसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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