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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५८] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय है । इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । तात्पर्य यह है कि अपराधियों को सर नीचे और पांव ऊंचे करके दुर्योधन चारकपाल कूपादि में गोते खिला कर अत्यधिक पीडित किया करता था । - उरे सिलं दलावेइ-की व्याख्या. टीकाकार ने "- उरसि पाषाणं दापयति तदुपरि लगुड दापयति, ततस्तं पुरुषाभ्यां लगुडोभयप्रतिनिविष्टाभ्यां लगुडमुत्कंपयति, अतीव चालयति यथाऽपराधिनोऽस्थीनि दल्यन्ते इति भावः-इस प्रकार है, अर्थात् अपराधी को सीधा लिटा कर उस की छाती पर एक विशाल शिला रखवाता है और उस पर एक लम्बा लक्कड़ धरा कर उस के दोनों ओर पुरुषों को बिठाकर उसे नीचे ऊपर कराता है, जिस से अपराधी के शरीर की अस्थिय टूट जावें और उसे अधिक कष्ट पहुंचे । सारांश यह है कि अपराधी को अधिक से अधिक भयंकर तथा अमर्यादित कष्ट देना ही दुर्योधन के जीवन का एक प्रधान लक्ष्य बन चुका था ।। ... "- भनि कडूयाति -" इन पदों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में "-अंगुलीप्रवेशितसूचीकः हस्तभूमिकडूयने महादुःखमुत्पद्यते इति कृत्वा भूमिकडूयनं 'कारयतीति-" इस प्रकार है अर्थात् हाथों की अंगुलियों में सूइयों के प्रविष्ट हो जाने पर भूमि को खोदने में महान् दुःख उत्पन्न होता है । इसी कारण दुर्योधन चारकपाल अपराधियों के हाथों में सुइएं प्रविष्ट करा कर उन से भूमि खुदवाया करता था। -दब्भेहि य कुसेहि य अल्जवम्मेहि य वेढावेति, आयवंसि दलयति २ सुक्खे समाणे चडचडस्स उप्पाडेति-अर्थात् शस्त्रादि से अपराधियों के शरीर को तच्छवा कर, दर्भ (मूलसहित घास), कुशा (मूलरहित घास) तथा आर्द्र चमड़े से उन्हें वेष्टित करवाता है, तदनन्तर उन्हें धूप में खड़ा कर देता है जब वे दर्भ, कुशा तथा आर्द्र चमड़ा सूख जाता था तब दुर्योधन चारकपाल उन को उनके शरीर से उखाड़ता था। वह इतने ज़ोर से उखाड़ता था कि वहां चड़चड़ शब्द होता था और दर्भादि के साथ उन की चमड़ी भी उखड़ जाती थी। इस प्रकार के अपराधियों को दिये गए नृशंस दण्ड के वर्णन से भली भान्ति पता चल जाता है कि दुर्योधन चारकपाल का मानस बड़ा निर्दयी एव करतापूर्ण था । वह अपराधियों को सताने में, पीड़ित करने में कितना अधिक रस लेता था ? यह ऊपर के वर्णन से स्पष्ट ही है । उन्हीं पापमयी एवं करतामयी दूषित प्रवृत्तियों के कारण उसे छठी नरक में जाकर २२ सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिये अपनी करणी का फल पाना पड़ा । इस पर से शिक्षा ग्रहण करते हुए सुखाभिलाषी पाठकों को सदा करतापूर्ण एवं निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों से विरत रहने का उद्योग करना चाहिये, और साथ कर्तव्य पालन की ओर सतत जागरूक रहना चाहिये। - (१) पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म०- कण्डूयावेति - का अर्थ-कण्डावयति भूमी घर्षयतीत्यर्थः । करचरणांगुलिषु सूचीः प्रवेश्य करचरणयोभूमौ धर्षणेन महादु:समुत्पादयतीति भावः - इस प्रकार करते हैं । अर्थात् कंडूयावेति-का अर्थ है---भूमी पर घसीटवाता है । तात्पर्य यह है कि हाथों तथा पैरों की अंगुलियों में सूइयों का प्रवेश करके उन्हें भूमि पर घसीटवा कर महान् दुःख देता है। . अर्धमागधीकोषकार - कण्डूयन शब्द के खोदना, खड्डा करना, ऐसे दो अर्थ करते हैं । परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में कंड्रयन शब्द का अर्थ खुजलाना लिखा है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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