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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित ही अधिक प्रयत्न करता है परन्तु जिस का वह सुन्दर भविष्य सुखासतिरूप होता है, अनासक्ति - रूप नहीं, ऐसा मानव मध्यम कहा जाता है। (४) विमध्यम-जो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का प्रयत्न करता है । लोक और परलोक के दोनों घोड़ों पर सवारी करना चाह रहा है, परन्तु परलोक के सुखों के लिये यदि इस लोक के सुख छोड़ने पड़े तो उसके लिये जो तैयार नहीं होता । जो सुन्दर भविष्य के लिये सन्दर वर्तमान को निछावर नहीं कर सकता । जो दोनों ओर एक जैसा मोह रखता है। जिस का सिद्धान्त है-माल भी रखना, वैकुण्ठ भी जाना । ऐसा मानव विमध्यम कहलाता है। ५-अधम-जो परस्त्रीगमन, चोरी आदि अत्यन्त नीच आचरण तो नहीं करता परन्तु वि. षयासक्ति का त्याग नहीं कर सकता । जो अपनी सारी शक्ति लगा कर इस लोक के ही सन्दर सुखोपभोगों को प्राप्त करता है और उन्हें पाकर अपने को भाग्यशाली समझता है । ऐसा जीवन धर्म को लक्ष्य में रख कर प्रगति नहीं करता प्रत्युत मात्र लोकलज्जा के कारण ही अत्यन्त नीच दुराचरणों से बचा रहता है, तथा जिस की भोगासक्ति इतनी तीव्र होती है कि धर्माचरण के प्रति किसी भी प्रकार की श्रद्धाभक्ति जागृत नहीं होने पाती, ऐसा मानव अधम कहलाता है। ६-अधमाधम-मनुष्य वह है जो लोक परलोक दोनों को नष्ट करने वाले अत्यन्त नौच पापा. चरण करता है । न उसे इस लोक की लज्जा तथा प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है और न परलोक का ही। वह परले सिरे का नास्तिक होता है । धर्म और अधर्म के विधिनिषेधों को वह ढोंग समझता है। वह उचित और अनुचित किसी भी पद्धति का ख्याल किये बिना एकमात्र अपना अभीष्ट स्वार्थ ही सिद्ध करना चाहता है। वह मनुष्य वेश्यागामी, परस्त्रीसेवन करने वाला, मांसाहारी, चोर, दुराचारी एवं सब जीवों की निर्दयतापूर्वक सताने वाला होता है । ऐसा मनुष्य अपना नीच स्वार्थ सिद्ध करना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है । भले ही फिर उस स्वार्थ की पूर्ति में किसी के जीवन का अन्त भी क्यों न होता हो। प्रस्तुत छठे अध्ययन में एक ऐसे ही अधमाधम व्यक्ति का जीवन संकलित किया गया है, जो राज्यसिंहासन के लोभ में अपने पूज्य पिता जैसे अकारण बन्धु को भी मारने की गति एवं दुष्टतापूर्ण प्रवृत्ति में अपने को लगा लेता है । सूत्रकार ने इस अध्ययन में अधमाधम व्यक्ति के उदाहरण से संसार को अधमाधम जीवन से विरत रहने की तथा अहिंसा सत्य आदि धार्मिक अनुष्ठानों के अाराधन द्वारा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को प्राप्त करने के लिये बलवती पवित्र प्रेरणा की है । उस अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नोत है मूल- 1 छट्ठस्स उक्खेवो। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं सपएणं महुरा णगरी । भंडीरे उज्जाणे । सुदरिसणे जक्खे । सिरिदामे राया । बन्धुसिरी भारिया । पुत्ते (१) छाया-षष्ठस्योत्क्षपः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मथुरा नगरी। भंडीरमुद्यानम् । सुदर्शनी यक्षः । श्रीदामा राजा । बन्धुश्रीः भार्या । पुत्रो नन्दीवर्धनो नाम दारकोऽभवत् , अहीन. यावद् युवराजः । तस्य श्रीदाम्न: सुबन्धु मामात्योऽभवत् , सामभेददण्ड० तस्य सुबंधोरमात्यस्य बहुमित्रापुत्रो नाम दारकोऽभवत् अहीन० । तस्य श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रो नाम अलंकारिकोऽभवत् । श्रीदाम्नो राज्ञः चित्रं बहुविधमलंकारिकं कर्म कुर्वाणः सर्वस्थानेषु सर्वभूमिकासु अन्तःपुरे च दत्तविचारश्चाप्यभवत् । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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