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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । विज्ञात विज्ञान-विशेष ज्ञान का नाम है और परिणतमात्र पद परिपक्व अर्थ का परिचायक है । तात्पर्य यह है कि जिस का विज्ञान परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो चुका है उसे विज्ञातपरिणतमात्र कहते हैं । - पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्दति- यहां के जाव-यावत् पद से “- तंजहा-वीरधातीए १, मज्जण०-से ले कर-चंपयपायवे सुहंसुहेणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ पृष्ठ १५८ पर लिखा जा चुका है। - - राईसर जाव सत्यवाहप्पभितीहिं- यहां पठित जाव-यावत् पद से-तलवरमाडम्बियकोडुम्बिय इब्म--सेटि इन पदों का ग्रहण होता है । तलवर आदि का अर्थ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है। तथा माया- यहां के बिन्दु से अपेक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ १३८ पर कर दी गई है -सव्वट्ठाणेसु- इत्यादि पदों की व्याख्या निनोक्त है - (१) सर्वस्थान- यह शब्द सब जगह अर्थात् शयनस्थान, भोजनस्थान, मंत्रणा - (विचार) स्थान, आय अर्थात् आमदनी और महसूल आदि के स्थानों के लिये प्रयुक्त होता है। (२) सर्वभूमिका शब्द का अर्थ है - राजमहल की सभी भूमिकाएं । भूमिका शब्द मंज़िल का परिचायक है, और टीकाकार अभयदेय सूरि के मतानुसार - राजमहलों की अधिक से अधिक सात भूमिकाएं मानी गई हैं। उन सभी भूमिकाओं में वृहस्पतिदत्त का आना जाना बेरोकटोक था । सयभूमि यासु त्ति, प्रासादभूमिकासु सप्तभूमिकावसानासु । अथवा - सर्वभूमिका शब्द अमात्य आदि सभी पदों के लिये भी प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि अमात्य मंत्री आदि बड़े से बड़े अधिकारी तक भी उस वृहस्पतिदत्त की पहुँच थी। (३) अन्तःपुर - वह स्थान है जहां राजा की राणिये रहती हैं -रणवास । वेला शब्द उचित अवसर - योग्य समय अर्थात् मिलने आदि के लिये जो समय उचित हो उसका बोध कराता है । अनुचित अवसर अर्थात् भोजन, शयन आदि के अयोग्य समय का परिचायक अवेला शब्द है । प्रथम और तृतीय प्रहर आदि का बोध काल शब्द से होता है । अकाल शब्द मध्याह्न आदि के समय के लिये प्रयुक्त होता है। रात्रि रात का नाम है। संध्याकाल को विकाल कहते हैं । -उरालाई०- यहां का बिन्दु माणुस्सगाई भोगभोगाई - इन पदों का परिचायक है। तथा -रहाण जाब विभूसिए-यहां का जाव-यावत् – पद -कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्त सवालंकार - इन पदों का संसूचक है । कपबलिकम्मे, आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ १७६ और १७७ पर की जा चुकी है । तथा सव्वालंकार - का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। -गिगहावेति २ जाव एतेणं- यहां पठित जाव-यावत् पद - अढि-मुट्टि-- जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महियगत्तं करोति २ अवोडगवन्धणं करेति करेत्ता- इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ पृष्ठ १७५ पर लिखा जा चुका है । तथा एतद् शब्द से जो अभिमत है उस का वर्णन पृष्ठ १७८ पर किया जा चुका है । तथा -- पोराणाणं जाव विहरति - यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ ५२ पर किया जा चुका है। भगवान् के मुख से इस प्रकार का भावपूर्ण उत्तर सुनने के अनन्तर गौतम स्वामी के चित्त में जो और जिज्ञासा उत्पन्न हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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