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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित। [ ३२७ प्रधान. मानव प्राणी नीच स्वार्थ के वरा होता हुआ ऐसी जयन्यतम हिंसापूर्ण प्रवृत्तियों से सदा अपने को विरत रखे और भल कर भी अधर्मपूर्ण कामों को अपने जीवन में न लाए, अन्यथा महेश्वरदत्त पुरोहित की भान्ति भीषण नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ २ उसे जन्म मरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा । हिययउंडए-यहां प्रयुक्त उण्डए यह पद देशीय भाषा का है। वृत्तिकार ने इसका अर्थहृदययसम्बन्धी मांसपिण्ड-ऐसा किया है, जो कि कोषानुमत भी है । हिययउंडए त्ति-हृदयमांसपिण्डान् । प्रस्तुत सूत्र में जितशत्रु नरेश के सम्मानपात्र महेश्वरदत्त नामक पुरोहित के जघन्यतम पापाचार का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार उसके भयंकर परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं मूल-'तते णं से महेसग्दत्त पुरोहिते एयकम्मे ४ सुबहु पावकम्मं समज्जिणित्ता तीसं वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा पंचमीए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तरससागरोवमद्वितिए नरगे उववन्ने । पदार्थ -तते णं-तदनन्तर । से-वह । महेसरदत्ते- महेश्वरदत्त । पुरोहिते-पुरोहित । पयकम्मे ४-एतत्कर्मा - इस प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करने वाला. एतत्प्रधान - इन एतद्विद्य -इन्हीं कर्मों की विद्या जानने वाला और एतत्समाचार - इन्हीं पाप कर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला, । सुबहु - अत्यधिक । पावकम्मं-पाप कर्म को । समज्जिणित्ता-उपार्जित कर । तीसं वाससयाई-तीन हजार वर्ष की । परमा-परमायु को । पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। -कालावसर में। कालं किच्चा-काल करके। पंचमीर-पांचवीं। पढवीर-पृथिवी-नरक में । उक्कोसेणं -उत्कृष्ट-अधिक से अधिक । सत्तरससागरोवमट्ठितिए-सप्तदश सागरोपम की स्थिति वाले । नरगे-नरक में । उववन्ने- उत्पन्न हुआ। ___ मूलार्थ-तदनन्तर २एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विज्ञान और एतत्समाचार वह महेश्वरदत्त पुरोहित नाना प्रकार के पापकर्मों का संग्रह कर तोन हजार वर्षे की परमायु पाल कर-भोग कर पांचवीं नरक में उत्पन्न हुआ, वहां उसकी स्थिति सतरह सागरोपम की होगी। टीका-"हिंसा" यह संस्कृत और प्राकृत भाषा का शब्द है । इस का अर्थ होता है-मारना, दुःख देना तथा पीड़ित करना । हिंसा करने वाला हिंसक मानव प्राणी हिंसा के आचरण द्वारा जहां इस लोक में अपने जीवन को नष्ट कर देता है, वहां वह अपने परभव को भी बिगाड़ लेता है। तात्पर्य यह है कि शुभ गति का बन्ध करने के स्थान में वह अशुभ गति का बन्ध करता है, और पंडितमरण के स्थान में बालमृत्यु को प्राप्त होता है। ____ महाराज जितशत्रु नरेश का पुरोहित महेश्वरदत्त भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक है. जो हिंसामूलक जयन्य प्रवृत्तियों से अपनी आत्मा का सर्वतोभावो पतन करने में अग्रेसर होता है । ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर नीच चाण्डाल के समान कुकृत्य करने वाला राजपुरोहित (१) छाया - ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः एतत्कर्मा ४ सुबहु पापकर्म समयं त्रिंशतं वर्षरातानि परमायुः पालयित्वा पञ्चम्यां पृथिव्यामुत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमस्थितिके नरके उपपन्नः । (२) इन पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ के टिप्पण में लिखा जा चुका है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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