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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यश्चम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [३२५ ____ महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान होम– यज्ञ के अनुष्ठान से जितशत्र नरेश को अपने शत्रु ओं पर सर्वत्र विजय प्राप्त होती, और उस के सन्मुख कोई शत्रु खड़ा न रह पाता था। या तो वहीं पर नष्ट हो जाता या परास्त हो कर भाग जाता । इसी कारण महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु नरेश का सर्वाधिक सन्मानभाजन बना हुअा था, और राज्य में उस का काफी प्रभाव था । यहां पर सम्भवतः पाठकों के मन में यह सन्देह अवश्य उत्पन्न होगा कि जब शास्त्रों में जीववध का परिणाम अत्यन्त कटु वर्णित किया गया है, और सामान्य जीव की हिंसा भी इस जीव को दुर्गति का भाजन बना देती है तो उक्त प्रकार की घोर हिंसा के आचरण में कार्य-साधकता कैसे ? फिर वह हिंसा भी शिशुओं की एवं शिशु भी चारों वर्गों के ? तात्पर्य यह है कि जिस आचरण से यह मानव प्राणो परभव में दुर्गति का भाजन बनता है । उस के अनुष्ठान से ऐहिक सफलता मिले अर्थात् अभीष्ट कार्य की सिद्धि सम्पन्न हो, यह एक विचित्र समस्या है ? जिस के असमाहित रहने पर मानव हृदय का संदेह को दलदल में फंस जाना अस्वाभाविक नहीं है । यद्यपि सामान्य दृष्टि से इस विषय का अवलोकन करने वाले पाठकों के हृदय में उक्त प्रकार के सन्देह का उत्पन्न होना सम्भव हो सकता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से इस विषय की ओर ध्यान दिया जाय तो उक्त संदेह को यहां पर किसी प्रकार का भी अवकाश नहीं रहता। हिंसक या सावद्य प्रवृत्ति से किसी ऐहिक कार्य का सिद्ध हो जाना कुछ और बात है तथा हिंसाप्रधान अनुष्ठान का कटु परिणाम होना, यह दूसरी बात है। हिंसा---प्रधान अनुष्ठान से मानव को अपने अभीष्ट कार्य में सफलता मिल जाने पर भी हिंसा करते समय उस ने जिस पाप कर्म का बन्ध किया है उस के विपाकोदय में मानव को उस के कटु फल का अनुभव करना ही पड़ेगा । उस से उस का छुटकारा बिना भोगे नहीं हो सकता। अयुर्वेदीय प्रामाणिक ग्रन्थों में राजयक्ष्मा - तपेदिक श्रादि कतिपय रोगों की निवृत्ति के लिये कपोत प्रभृति कितनेक जांगल जीवां के मांस का विधान किया गया है । तथा वहां-उक्त जीवों के मांसरस के प्रयोग करने से रोगी का रोग दूर हो जाता है --ऐसा भी लिखा है । परन्तु रोगमुक्त हो जाने पर भी उन जीवों की हिसा करने से उस समय रोगी पुरुष ने जिस प्रकार के पाप कर्म का बन्ध किया है, उस का फल भी उसे इस भव या परभव में अवश्य भोगना पड़ेगा । इसी प्रकार महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान पापानुष्ठान से जितशत्रु को परयल में विजयलाभ हो जाने पर भी उस भयानक हिंसाचरण का जो कटुतम फल है, वह भी उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। इसलिये कार्यसाधक होने पर भी हिंसा, हिंसा ही रहती है और उस के विधायक को वह नरकद्वार का अतिथि बनाये बिना कभी नहीं छोड़ती। जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत अग्रिम सूत्र में महेश्वरदत्त का मृत्यु के अनन्तर पांचवीं नरक में जाना वणित है ।। .. दूसरे शब्दों में कहें तो साधक को हिंसामूलक प्रवृत्ति जहां उस के ऐहिक स्वार्थ' को सिद्ध करती है वहां उस का अधिक से अनिष्ट भी सम्पादन करती है। हिंसाजन्य वह कार्य सिद्धि उसी व्यवसाय के समान है कि जिस में लाभ एक रुपये का और हानि १०० रुपये की होती है । कोई भी बुद्धिमान व्यापारी ऐसा व्यवसाय करने के तैयार नहीं हो सकता, जिस में लाभ की अपेक्षा नुकसान सौ गुना अधिक हो । तथापि यदि कोई ऐसा व्यवसाय करता है वह या तो नितान्त मूख और जड़ है, या वह उक्त व्यवसाय से प्राप्त होने वाली हानि से सर्वथा अज्ञात है । सांसारिक For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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