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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - www.kobatirth.org चतुर्थ अध्याय ] वह । सगड़ े - शकट । दारण। कूडग्गाहन्त - कूटग्राहित्व - को उवसंपज्जित्ता गं - संप्राप्त वह । सगड़ े - शकट । दारण 1 जीवों को वश में करने वाला । भविस्सति होगा. - हुत्रा । विहरिष्यति - विहरण करेगा । तते गं - तदनन्तर । मे बालक । अन्नयाकया - किसी अन्य समय । समेत्र स्वयं ही कूट - कपट से अन्य प्राणियों को अपने वश में करने की कला कर के । विहरिस्सति - विहरण करेगा । तते णं - तदनन्तर । से चालक । कूडग्गाहे - कूटग्राह अर्थात् कपट से जो कि 1 श्रम्मिए अधर्मी । जाव - यावत् । दुष्पडियाणंदे - दुष्प्रत्यानन्द – कठिनता से प्रसन्न होने वाला होगा । एकम्मे ४ - एतत्कर्मा – इन कर्मों के करने वाला, एतत्प्रधान -इन कर्मों में प्रधान, एतद्विद्य इस विद्या - विज्ञान वाला और एतत्समाचार - इन कर्मों को ही अपना सर्वोत्तम श्राचरण बनाने वाला वह । सुबहु – अत्यधिक । पावकम्मं - पाप कर्म को । समज्जिखित्ता - उपार्जित कर । कालमासे - कालमास मृत्यु का समय आने पर । कालं किच्चा - काल कर के । इमीसे इस । रयणप्पभाए - रत्नप्रभा नामक पुढवीए पृथिवी - - नरक में । रइयत्ताए - नारकी रूप से । उववज्जिहिति - उत्पन्न होगा। तहेव - तथैव । संसारो - संसारभ्रमण । जाव - यावत् । पुढवीए० - पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा । ततो- वहां से । से गं - वह । उव्वहित्ता — निकल कर । अतरं— अन्तररहित । वाणारसोए - वाराणसी - बनारस 1 रायरीए - नगरी में । मच्छत्ताए - मत्स्य के रूप में । उववज्जिहिति उत्पन्न होगा । से गं - वह । तत्थ - वहां । मच्वधिएहिमत्स्यवधिकों मछली मारने वालों के द्वारा । वधिए - हनन किया हुआ । तत्थेव - उसी । वाणारसीए बनारस । णयरीप नगरी में । सेट्ठिकुलंसि श्रेष्ठिकुल में । पुत्तत्ताए- पुत्ररूप से । पच्चायाहिति उत्पन्न होगा, वहां । बोहि० – सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा । पवज्जा० – प्रवज्या – साधुवृत्ति गीकार करेगा । सोहम्मे कप्पे० - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा वहां से । महाविदेहे ० - महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहां पर संयम के सम्यक् श्राराधन से व्यव कर । सिज्झिहिति ५सिद्धि प्राप्त करेगा अर्थात् कृतकृत्य हो जायेगा, केवल ज्ञान प्राप्त करेगा, कर्मों से रहित होगा, कर्मजन्य संताप से विमुक्त होगा और सब दुःखों का अंत करेगा । निक्खेवो - निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए । चउत्थं - चतुर्थ । श्रभयणं - अध्ययन । समतं - सम्पूर्ण हुआ । मूलार्थ - हे गौतम! शकट बालक ५७ वर्ष को परम आयु को पाल कर - भोग कर दिन में एक महान् लोहमय तपी हुई अग्नि के समान देदीप्य - कराया हुआ मृत्यु समय में काल करके रत्नप्रभा नाम की पहली नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा । 1 आज ही तीसरा भाग शेष रहे मान स्त्रीप्रतिमा से अलिंगित पृथिवी वहां से निकल कर सीधा राजगृह नगर में मातंग - चांडाल के कुल में युगलरूप से उत्पन्न होगा, उस युगल ( वे दो बच्चे जो एक ही गर्भ से साथ उत्पन्न हुए हों ) के माता पिता बारहवें दिन उन में से बालक का शकटकुमार और कन्या का सुदर्शना कुमारी यह नामकरण करेंगे। शकट कुमार बाल्यभाव को त्याग कर यौवन को प्राप्त करेगा । सुदर्शना कुमारी भी बाल्यभाव से निकल कर विशिष्ट ज्ञान तथा बुद्धि आदि की परिपक्वता को प्राप्त करती हुई युवावस्था को प्राप्त होगी । वह रूप में, यौवन में और लावण्य में उत्कृष्ट - उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली होगी । तदनन्तर सुदर्शना कुमारी के रूप, यौवन और लावण्य - आकृति की सुन्दरता में - हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal - (३०९ -
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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