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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९२] श्रीविपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय में नारकीयरूप से उत्पन्न हुआ और वहां वह भीषणातिभोषण नारकीय असह्य दुःखों को भोगता हुआ अपनी करणी का फल पाने लगा । प्रस्तुत कथासंदर्भ में जो अजादि पशुओं के शतबद्ध तथा सहस्त्रबद्ध यूथ वाड़े में बन्द रहते थे, ऐसा लिखा है । इस से सूत्रकार को यही अभिमत प्रतीत होता है कि यूथों में विभक्त अजादि पशु सैंकड़ों तथा हजारों की संख्या में बाड़े में अवस्थित रहते थे । यहां यूथ शब्द का स्वतन्त्र - रूप से अज आदि प्रत्येक पद के साथ अन्वय नहीं करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि अजों के शतबद्ध तथा सहस्त्रबद्ध यूथ, भेडों के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ, इसी प्रकार गवय आदि शब्दों के साथ यूथ पद का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि सब पदों का यदि स्वतन्त्ररूपेण यूथ के साथ सम्बन्ध रखा जाएगा, तो सिंह शब्द के साथ भी यूथ पद का अन्वय करना पड़ेगा, जो कि व्यवहारानुसारी नहीं है, अर्थात् ऐसा देखा या सुना नहीं गया कि हजारों की संख्या में शेर किसी बाड़े में बंद रहते हों । व्यवहार तो - १ सिंहों के लेहंडे नहीं-इस अभियुक्तोक्ति का समर्थक है । अतः प्रस्तुत में-यूथों में विभक्त अजादि पशुओं की संख्या सैंकड़ों तथा हज़ारों की थी - यह अर्थ समझना चाहिये । इस अर्थ में किसी पशु को स्वतन्त्र संख्या का कोई प्रश्न नहीं रहता । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । कोषकारों के मत में पसय शब्द देशीय भाषा का है, इस का अर्थ-मृगविशेष या मृगशिशु होता है । अन्य पशुश्री के संसूचक शब्दों का अर्थ स्पष्ट ही है । तथा “ -दिएणभतिभत्तवेयणा-की व्याख्या पृष्ठ २१६ पर कर दी गई है। -महया०- यहां के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन पृष्ठ १३८ पर दिया जा चुका है तथा-अड्ढे- यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ १२० पर लिख दिया गया है। तथा -अहम्मिए जाव. दुपिडियाणंदे - यहां के जाव-यावत् पद से अभीष्ट पदों का वर्णन पृष्ठ ५५ पर किया गया है । तथा-अए जात्र महिसे - यहां के जाव -यावत् पद से --एले य रोज्झे य वसमे य ससए य पसए य सूयरे य सिंबे य हरिणे य मऊरे य-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है। इसी प्रकार-अयाण य जाव महिसाण - यहाँ का जाव-यावत् पद – एलाण य रोज्झारण य वसभाण य ससयाण य- इत्यादि पदों का, तथा-अयमसाइजाव महिसाई- यहां का जाव-यावत् पद -एलमंसाई य रोज्झमसाई य वसभमंलाइ य -इत्यादि पदों का परिचायक है । इन में मात्र विभक्तिगत भिन्नता है, तथा मांस शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। तवक, कवल्ली, कन्दु और भर्जनक आदि शब्दों की व्याख्या पृष्ठ २१७ पर की जा चुकी है, तथा-सुरं च ५- यहां दिये गये ५ के, और-आसादेमाणे ४ - यहां दिये गाये 6 के अक से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है ।। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् , हावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को यह बतलाया कि जिस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का तुम ने वृत्तान्त जानने की इच्छा प्रकट की है, वह पूर्वजन्म में छरिणक नामक छागलिक था, जो कि कि नितान्त सावद्यकर्म के आचरण से उपार्जित कर्म के कारण चतुर्थ नरक को प्राप्त हुआ था। वहां की भवस्थिति को पूरा करने के बाद उस ने कहां जन्म लिया १ अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं (१) सिंहों के लेहंडे नहीं, हंसों की नहीं पांत । लालों की नहीं बोरियां, साध न चले जमात ॥ (कबीरवाणी में से) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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