SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ चतुर्थ अध्याय ब्रह्म अर्थात् आगम-धर्मशास्त्र अथवा परमात्मा में आचरण करना 'ब्रह्मचर्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि परमात्मध्यान में तल्लीन होना तथा धर्मशास्त्र का सम्यक् स्वाध्याय करना, अर्थात् उसमें प्रतिपादित शिक्षाओं को जीवन में उतारना ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य का यह व्युत्पत्तिलभ्य यौगिक अर्थ है जोकि आजकल एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो चुका है। आजकल ब्रह्मचर्य का रूढ़ अर्थ-मैथुन का निरोध है, अर्थात् स्त्री का पुरुष के सहवास से पृथक रहना और पुरुष का स्त्री के संपर्क से पृथक रहना ब्रह्मचर्य कहलाता है। प्रकृत में हमें इसी रूढ़ अर्थ का ही ग्रहण करना इष्ट है। ब्रह्मचर्य -मैथुन निवृत्ति से कितना लाभ सम्भव हो सकता है , यह जीवन को उन्नति के शिखर तक पहुँचाने के लिये कितना सहायक बन सकता है , तथा आत्मा के साथ लगी हुई विकट कर्मार्गलाओं को तोड़ने में यह कितना सिद्धहस्त रहता है ।, तथा इसके प्रभाव से यह आत्मा अपनी ज्ञान-ज्योति के दिव्य प्रकाश में कितना विकास कर सकता है ? इत्यादि बातों का यदि अन्वय दृष्टि की अपेक्षा व्यतिरेक दृष्टि से विचार किया जाए तो अधिक संगत होगा। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के यथाविधि पालन करने से साधक व्यक्ति में जिन सद्गुणों का संचार होता है उन पर दृष्टि डालने की अपेक्षा यदि ब्रह्मचर्य के विनाश से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम का दिग्दर्शन करा दिया जाये तो यह अधिक संभव है कि साधक ब्रह्मचर्य – सदाचार के विनाश - जन्य कटु परिणाम से भयभीत होकर दुराचार से विरत हो जाये और सदाचार के सौरभ से अपने को अधिकाधिक सुरभित कर डाले। __ इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में ब्रह्मचर्य के विनाश अर्थात् मैथुनप्रवृत्ति की लालसा में आसक्त व्यक्ति के उदाहरण से ब्रह्मचर्य - विनाश के भयंकर दुष्परिणाम का दिग्दर्शन करा कर उससे पराङ मुख होने की साधक व्यक्ति को सूचना देकर मानव जीवन के वास्तविक कर्तव्य की ओर ध्यान दिलाया गया है । उस अध्ययन का आदिम सत्र इस प्रकार है (१) ब्राणि चरणम् --श्राचरणमिति ब्रह्मचर्यम् । (२) निम्नलिखित गाथाओं में अब्रह्मचर्य-दुराचार की निकृष्टता का दिग्दर्शन कराया गया है - अबभचरिअंघोरं पमायं दुरहिट्ठिअं । नायान्ति मुणी लोर भेाययणवज्जिणो ॥ १६ ॥ छाया-अब्रह्मचर्य घोरं प्रमादं दुरधिष्ठितम् । नाचरन्ति मुनयो लोके भेदायतन-वर्जिनः ॥ मूलमेयमहमस्स महादोस-समुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयन्ति णं ॥१७॥ छाया-मूलमेतद् अधर्मस्य महादोषसमुच्छ्यं । तस्माद् मथुनसंसर्ग निर्ग्रन्थाः वजयन्ति ॥ (दशवकालिक सत्र अ. ६) अर्थात् यह अब्रह्मचर्य अनंत संसार का वर्धक है, प्रमाद का मूल कारण है और यह नरक आदि रौद्र गतियों में ले जाने वाला है, इसलिये संयम के भेदक रूप कारणों के त्यागी मुनिराज इसका कभी सेवन नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ यह अब्रह्मचर्य सब अधर्मों का मूल है और महान् से महान् दोषों का समूह रूप है । इसीलिये निग्रंथ-साधु इस मैथुन के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं ॥ १७ ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy