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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२७३ टीका - प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न तथा भगवान् की ओर से दिये गये उस के उत्तर का वर्णन किया गया है । भगवन् ! श्रभग्नसेन चोरसेनापति यहां से काल करके कहां जायेगा ? और कहां पर उत्पन्न होगा ? और अन्त में उसका क्या बनेगा ? ये गौतम स्वामी के प्रश्न हैं, इनके उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया वह निम्नोत है - गौतम ! अभमसेन चोरसेनापति अपने अनुभव करेगा और पुरिमताल नगर के महाबल के उपलक्ष्य में सूली पर चढ़ादेंगे । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों के प्रभाव से महती वेदना का नरेश उसे आज ही अपराह्नकाल में उसके अपराधों प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में जो यह लिखा है कि अभग्नसेन को अपराह्नकाल में सूली पर चढ़ाया जावेगा, इस पर यहां एक अशंका होती है कि प्रभग्नसेन की - पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर चाबुकों के भीषण प्रहारों से निर्दयतापूर्वक ताड़ित करना, उसी के शरीर में से निकाले हुए मांसखण्डों का उसे खिलाना, तथा साथ में उसे रुधिर का पान कराना, वह भी एक स्थान पर नहीं प्रत्युत अठारह स्थानों पर इस प्रकार की भीषण एवं मर्मस्पर्शी दशा किये जाने पर भी वह जीवित रहा, उस का वहां पर प्राणान्त नहीं हुआ, यह कैसे ? अर्थात् मानवी प्राणी में इतना बल कहां है कि जो इस प्रकार पर नरकतुल्य दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है - शारीरिक बल का आधार संहनन ( संघयन) होता है । हड्डियों की रचना विशेष का नाम संहनन है । वह छः प्रकार का होता है, जो कि निम्नोक्त है - (१) वज्रऋषभनाराचसंहनन - वज्र का अर्थ कील होता है । ऋषभ वेष्टनपट्ट (पट्टी) को कहते हैं । नाराच शब्द दोनों ओर के मर्कटबन्ध (बन्धनविशेष) के लिये प्रयुक्त होता है । अर्थात् जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की श्राकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो और जिस में इन तीनों हड्डियों को भेदन करने वाली वज्र नामक हड्डी की कील हो उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । यह संहनन सब से अधिक बलवान होता है । (२) ऋषभनाराचसंहनन - जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो, पर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली वज्र नामक हड्डी की कील न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । यह पहले की अपेक्षा कम बलवान होता है । (३) नाराचसंहनन - जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई हड्डियां हों पर उन्हीं के चारों तरफ वेष्टनपट्ट और वज्र नामक कील न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं । यह दूसरे की अपेक्षा कम बलवान होता है । (४) अर्धनाराचसंहनन - जिस संहनन में एक ओर तो मर्कटबन्ध हो और दूसरी ओर कीली हो उसे अर्धनाराचसंहनन कहते है । यह तीसरे की अपेक्षा कम बल वाला होता है । (५) कीलिकासंहनन - जिस संहनन में हड्डियां केवल कील से जुड़ी हुई हों उसे कीलिकासंहनन कहते हैं । यह चौथे की अपेक्षा कम बल बाला होता है । (६) सेवार्तक संहनन - जिस संहनन में हड्डियां पर्यन्त भाग में एक दूसरे को स्पर्श करती हुई रहती हैं तथा सदा चिकने पदार्थों के प्रयोग एवं तैलादि की मालिश की अपेक्षा रखती For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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