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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२६५ अपण करता है । तदनन्तर महाबल नरेश अभग्नसेन चोरसेनापति द्वारा अर्पण किये गये उस उपहार को स्वीकार करके उसे सत्कार और सन्मान पूर्वक अपने पास से बिदा करता हश्रा कूटाकारशाला में उसे रहने के लिए स्थान दे देता है। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति महाबल नरेश द्वारा सत्कारपूर्वक विसर्जित हो कर कूटाकारशाला में जाता है और वहां पर निवास करता है। इधर महाबल नरेश ने कौट बिक परुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग विपल अशनादिक सामग्री को तैयार कराओ और उसे, तथा पांच प्रकार को मदिराओं एवं अनेकविध पुष्पों, मालाओं और अलंकारों को कुटाकारशाला में अभग्नसेन चोरसेनापति की सेवा में पहुंचादो । कौटम्बिक पुरुषां ने राजा की आज्ञा के अनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहां पहुचा दी । तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहन कर अपने बहुत से मित्रों और ज्ञाति ननों के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध सुरा आदि का सम्यक् आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ प्रमत्त हो कर विहरण करने लगा। टोका-महाबल नरेश द्वारा प्राप्त निमंत्रण को स्वीकार करने के अनन्तर चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन ने अपने साथियों को बुला कर महाबल नरेश के निमंत्रण का सारा वृत्तान्त कह सनाया और साथ में यह भी कहा कि मैंने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है. अत: हमें वहां चलने की तैयारी करनी चाहिये १ क्योंकि महाराज महाबल हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे । यह सुन सब ने अभग्नसेन के प्रस्ताव का समर्थन किया और सब के सब अपनी २ तैयारी करने में लग गये । स्नानादि से निवृत्त हो और अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके सब ने समस्त आभूषण पहने और पहन कर अभग्नसेन के साथ चोरपल्ली से परिमताल नगर की ओर प्रस्थान किया । अपने साथियों के साथ अभग्नसेन बड़ी सजधज के साथ महाबल नरेश के पास पहुँचा, पहुँच कर महाराज को "-महाराज की जय हो, विजय हो-" इन शब्दों में बधाई दी और उन को राजोचित उपहार अर्पण किया। महाराज महाबल नरेश ने भी अभग्नसेन की भेएट को स्वीकार करते हुए, साथियों समेत उस का पूरा २ सत्कार एवं सम्मान किया और उसे कूटाकारशाला में रहने को स्थान दिया, तथा अपने पुरुषों द्वारा खान पानादि की समस्त वस्तुएं उस के लिए वहां भिजवा दी । इधर अभग्न सेन भी उस का ययारुचि उपभोग करता हुआ अपने अनेक मित्रों और जातिजनों के साथ आमोद प्रमोद में प्रमत्त हो कर समय व्यतीत करने लगा, अर्थात् महाबल नरेश ने खान पानादि से उस की इतनी आवभगत की कि वह उस कूटाकारशाला को अपना ही घर समझ कर मन में किसी भी प्रकार का भविष्यत्कालीम भय न करता हुआ अर्थात् निर्भय एव निश्चिन्त अपने आप को समझता हुआ, आमोद प्रमोद में समय बिताने लगा । इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने पमत्त-प्रमत्त, इस पद का प्रयोग किया है। __--मित्त. जाव परिवुडे-"यहां के जाव-यावत् पद से –णाइ-णियगसयण -सम्बन्धि-परिजणेणं सद्धि सं-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। मित्र आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ १५० की टिप्पण में कर दी गई है । "-एहाते जाव पायच्छित्त-"यहां पठित जाव-यवात् पद से विवक्षित पदों का वर्णन For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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