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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५४] श्रो विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय हतः-सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो-मानस्य मन्थनात् प्रवरवीराः-सुभटा: घातिताःविनाशिताः यस्य स तथा, विपतिताश्चिह्नवजा गरुडादिचिह्नयुक्तकेतवः पताकाश्च यस्य स तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । अतस्तं सर्वतो रणाद् निवर्तयति' अर्थात् जाव-यावत्-पद से विवक्षित पाठ में दण्डनायक के हत, मथित आदि चार विशेषण हैं । इन का अर्थ निम्नोक्त है (१) हत-जिस के सैन्यबल को आहत कर दिया, अर्थात् जख्मी बना डाला है । (२) मथित-जिस के मान का मन्थन -मर्दन किया गया है । (३) प्रवरवीरघातित- जिस के प्रवर-अच्छे २ वीरों-योद्धाओं का विनाश कर दिया गया है। (४) विपतितचिन्हभ्वजपताक -जिस की गरुडादि के चिन्हों से युक्त ध्वज और पताकार्ये (झण्डिएं) गिरा दी गई हैं । -"दिसो दिसिं-इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं । जैसे कि – (१) रणक्षेत्र से सर्वथा हटा देना-भगा देना। (२) सामने की दिशा से अर्थात् जिस दिशा में मुख है उस से अन्य दिशाओं में भगा देना। पुरिमताल राजधानी की ओर लौटने के बाद दण्डनायक महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित हुआ । अभग्नसेन द्वारा पराजित होने के कारण वह निस्तेज, निर्बल और पराक्रमहीन हो रहा था । उसने बड़े विनीत भाव से निवेदन करते हुए कहा, कि महाराज ! बड़ी विकट समस्या है। चोर. सेनगपति अभग्नसेन जिस स्थान में इस समय बैठा हुआ है, वहां उस पर आक्रमण करना, और उसे पकड़ कर लाना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भवप्राय: है । उसके तथा उसके सैनिकों के प्रहार अमोघ-निष्फल न जाने वाले, हैं । उसके सैनिकों के भयंकर आक्रमण ने हमें वापिस लौटने पर विवश ही नहीं किया अपितु हम में फिर से अाक्रमण करने का साहस ही नहीं छोड़ा। महाराज ! मुझे तो आज यह दृढ़ निश्चय हो चुका है कि उसे घुड़सवार सेना के बल से. मदमस्त हस्तियों के बल से, और शूरवीर योद्धाओं तथा रथों के समूह से भी, नहीं जीता जा सकता। अधिक क्या कहूँ, यदि चतुरंगिणी सेना लेकर भी उस पर आक्रमण किया जाये तो भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता । आज का दिन महाबल नरेश के लिये बड़ा ही दुर्दिन प्रमाणित हुआ । ज्यों ज्यों वे दण्डनायक सेनापति के आक्रमण और महान असफलता को सूचित करने वाले शब्दों पर ध्यान देते हैं त्यों त्यों उनके हृदय में बड़ा तीत्र आघात पहुंचता है ओर चिन्ताओं का प्रवाह उस में ठाठ मारने लगता है। उन के जीवन में यह पहला ही अवसर है कि उन्हें युद्ध में इस प्रकार के लजास्पद पराजय का अनुभव करना पड़ा, और वह भी एक लुटेरे से । एक तरफ़ तो वे नागरिकों को दिये हुए रक्षासम्बन्धी अाश्वासन का ध्यान करते हैं और दूसरी तरफ अभग्न सेन पर किये गये आक्रमण को निष्फलता का ख्याल करते हैं । इन दोनों प्रकार के विचारों से उत्पन्न होने वाली आन्तरिक वेदना ने महाबल नरेश को किंकर्तव्य -विमढ सा बना को इस पराजय का स्वप्न में भी भान नहीं था। इस समय जो समस्या उपस्थित हुई है उसे किस प्रकार सुलझाया जाए? यह एक विकट प्रश्न था। अगर अभग्नसेन का दमन करके उस के अत्याचारों से पीड़ित प्रजा का संरक्षण नहीं किया जाता तो फिर इस शासन का अर्थ ही क्या है ? और वह शासक ही क्या हुआ कि जिस के शासन काल में उसकी शान्त प्रजा अन्यायियों और अत्याचारियों के नृशंस कृत्यों से पीड़ित हो रही हो ? इस प्रकार की उत्तरदायित्वपूर्ण विचार - परम्परा ने महाबल नरेश के हृदय को बहत व्यथित कर दिया, और वे चिन्ता के गहरे समुद्र में गोते खाने लगे। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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