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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४४] श्री वपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय और धिक्कार है मुझे अब तो मैं इन इन को सुखी इन के घर जलाये हैं, इन को निर्धन और पूरी शिक्षा न कर लूंगा, तक चैन से तब नरेश बड़े गहरे सोच विचार में पड़ गये । वे विचार करते हैं कि मेरे होते हुए मेरी प्रजा इतनी भयभीत और दुःखी हो, सुख और शान्ति से रहना उसके लिये अत्यन्त कठिन हो गया हो. यह किस प्रकार का राज्य - प्रबन्ध १ जिस राजा के राज्य में प्रजा दुःखों से पीड़ित हो, अत्याचारियों के अत्याचारों से भयसंत्रस्त हो रही हो, क्या वह राजा एक क्षणमात्र के लिए राज्य सिंहासन पर बैठने के योग्य हो सकता है ? धिक्कार है मेरे इस राज्य – प्रबन्ध को ? जिस ने स्वयं अपनी प्रजा की देखरेख में प्रमाद किया ? अस्तु, कुछ भी हो, दुःखियों के दुःख को दूर करने का भरसक प्रयत्न करूगा | हर प्रकार से बनाऊंगा । जिन श्रातताइयों ने इन को लूटा है, कंगाल बनाया है, उन अत्याचारियों को जब तक नहीं बैठूंगा । इस प्रकार की विचार - परम्परा में कुछ क्षणों तक निमग्न रहने के बाद महाराज महाबल ने अपने आये हुए नागरिकों का स्वागत करते हुए सप्रेम उन्हें आश्वासन दिया और उनके कष्टों को शीघ्र से शीघ्र दूर करने की प्रतिज्ञा की और उन्हें पूरा विश्वास दिला कर विदा किया । आये हुए पीडित जनता के प्रतिनिधियों को बिदा करने के बाद अभग्नसेन के क्रूरकृत्यों से पीडित हुई अपनी प्रजा का ध्यान करते हुए महाबल के हृदय में क्षत्रियोचित आवेश उमड़ा । उन की भुजाएं फड़कने लगीं, क्रोध से मुख एक दम लाल हो उठा और कोपावेश से दान्त पीसते हुए उन्होंने अपने दण्डनायक - कोतवाल को बुलाया और पूरे बल के साथ चोरपल्ली पर आक्रमण करने, उसे विनष्ट करने, उसे लूटने तथा उस के सेनापति अभग्नसेन को पकड़ लाने का बड़े तीव्र शब्दों में आदेश दिया । दण्डनायक ने भी राजाज्ञा को स्वीकार करते हुए बहुत से सैनिकों के साथ चोरपल्ली पर चढ़ाई करने के लिए पुरिमताल नगर में से निकल कर बड़े समारोह के साथ चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय किया । - " सुरुत े जाव मिसमिसीमाणे” – यहां पठित जाव- यावत् पद से - कुविए चरिsक्किए - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । शीघ्रता से रोषाक्रान्त हुए व्यक्ति का नाम शुरु है । मन से क्रोध को प्राप्त व्यक्ति कुपित कहलाता है । भयानकता को धारण करने वाला चारिsक्ति कहा जाता है । मिलिमिसीमाण शब्द - क्रोधाग्नि से जलता हुआ अर्थात् दान्त पीसता हुआ, इस अर्थ का परिचायक है। " सन्नद्ध० जाव पहरणेहिं" - यहां के जाव यावत् पद से - बद्धवम्मियकवएहिं उप्पी लिपसरासणपट्टिएहिं पिणद्धगेविज्जेहिं विमलवरचिंधपट्टहिं गहियाउह – इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १२४ पर लिख दिया गया है। - - "फलरहिं जाव छिप्पतुरेणं" - यहां पठित जाव यावत् पद से णिक्किट्ठाहिं सीहिं सागतेहिं - से लेकर - श्रवसारियाहिं ऊरुघण्टाहि यहां तक के पाठ का ग्रहण समझना । इन पदों का अर्थ पृष्ठ २१९ पर लिखा जा चुका है । - - "उक्किह० जाव करेमाणे” – यहां पठित जाव यावत् पद से सीहनाय बोलकलकलरवेण समुदभूयं पिव-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ २२२ तथा २२३ पर दिया जा चुका है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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