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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । २३७] ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों उस में कमी आती गई और अन्त में वह पिता को भूल ही गया । इस प्रकार शोक -विमुक्त होने पर अभन्न पेन अपनी विशाल आटवी चोरपल्ली में सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। पाठक यह तो जानते ही हैं कि अब चोरपल्ली का कोई नायक नहीं रहा । विजयसेन के अभाव से उसकी वही दशा है जोकि पति के परलोक-गमन पर एक विधवा स्त्री की होती है। चोरपल्ली की इस दशा को देख कर वहां रहने वाले पांच सौ चोरों के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि जहां तक बने चोरपल्ली का कोई स्वामी- शासनकर्ता शीघ्र ही नियत कर लेना चाहिये । कभी ऐसा न हो कि कोई शत्रु इस पर आक्रमण कर दे और किसी नियन्ता के अभाव में हम सब मारे जायें । यह विचार हो ही रहा था कि उन में से एक वृद्ध तथा अनुभवी चोर कहने लगा कि चिन्ता की कौनसी बात है ? हमारे पूर्व सेनापति विजय की सन्तान ही इस पद पर आरूढ़ होने का अधिकार रखती है। यह हमारा अहोभाग्य है कि हमारे सेनापति अपने पीछे एक अच्छी सन्तान छोड़ गये हैं । कुमार अभग्नसेन हर प्रकार से इस पद के योग्य हैं. वे पूरे साहसी अथच नोतिनिपुण हैं । इसलिये सेनापति का यह पद उन्हीं को अर्पण किया जाना चाहिये । अाशा है मेरे इस उचित प्रस्ताव का आप सब पूरे ज़ोर से समर्थन करेंगे । बस फिर क्या था, अभमसेन का नाम आते ही उन्हों ने एक स्वर से वृद्ध महाशय के प्रस्ताव का समर्थन किया, और बड़े समारोह के साथ सबने मिल कर शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन को सेनापति के पद पर नियुक्त करके अपनी स्वामी भक्ति का परिचय दिया। तब से कुमार अभग्नसेन चोरसेनापति के नाम से विख्यात हो गया और वह चोरपल्ली का शासन भी बड़ी तत्परता से करने लगा । तथा पैतृक सम्पत्ति और पैतृक पद लेने के साथ २ अभग्नसेन ने पैतृक विचारों का भी आश्रयण किया. इसी लिये वह अपने पिता की भान्ति अधर्मी, पापी एवं निर्दयता--पूर्वक जनपद (देश) को लटने लगा । अधिक क्या कहें वह राजदेय कर-महसूल पर भी हाथ फेरने लगा। अब सूत्रकार अभग्नसेन की अग्रिम जीवनचर्या का वर्णन करते हुए कहते हैंमूल-' तते णं जाणवया पुरिसा अभग्गसेणेण चोरसेणावतिणा बहुग्गामघायावणाहिं ताविया समाणा अन्नपन्न सद्दाति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणु० ! अभग्गसेणे चोर (१) छाया-ततस्ते जानपदा: पुरुषा: अभन्न सेनेन चोरसेनापतिना बहुग्रामघातनाभिस्तापिताः संत: अन्योन्यं शब्दाययन्ति २ एवम बदन् –एवं खलु देवानु० ! अभग्नमेनश्वोरसेनापति: पुरिमतालस्य नगरस्यौताराहं जनपदं बहुभिामघातर्यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति । तच्छ यः खलु देवानुप्रियाः ! पुरिमताले नगरे महाबलस्य राज्ञः एतभर्थ विज्ञपयितु , ततस्ते जानपदपुरुषाः एतमर्थमन्योऽन्यं प्रतिशृण्वन्त २ महाथ महाघ महाहै राजाह प्राभृतं गृह्णन्ति २ यत्रैव पुरिमतालं नगरं यत्रैव महाबलो राजा तत्रैवोपागताः २ महाबलाय राजे तद् महार्थ यावत् प्राभृतमुपनयन्ति २ करतल० अंजलिं कृत्वा महाबलं राजानं एवमवदन् । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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