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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३४] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय में आवेगा । इसी सिद्धान्त के अनुसार कुमार अभग्नसेन के शिशु कालीन सम्बन्धी सुख तथा युवावस्था सुगमता से समाहित हो जाता है । श्रश्र दाश्रो - " इन पदों से अभिप्रेत पदार्थ का वर्णन करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं के ऐश्वर्योपभोग का प्रश्न बड़ी " दारिश्रो जाव " दारिया त्ति" अस्यायमर्थः: - तप णं तस्स भग्ग सेणस्स अम्मापियरो अभग्गलेणं कुमारं सोहरांसि तिहिकरण नक्खत्तमुहुत्तसि श्रहिं दारियाहिं सद्धि एगदिवसेगं पाणि गेहर्विसु ति । यावत्करणाच्चेदं द्वश्यं - तर णं तस्स अभग्ग सेणकुमारस्स सम्मावियरो इमं पयारूवं पीइयाणं दलयन्ति ति । “ओ दाउ त्ति" श्रष्ट परिमाणमस्येति श्रष्टको दायोदानं 'वाच्य' इति शेषः । स चैवं " - ऋट्ठ हिरणकोडीओ ट्ठ सुवरणकोडीओ - इत्यादि यावद् - 'ट्ठ पेसण- कारिया अन्नं च विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संख सिलप्पवातरत्तरयणमा इयं संतसारसावपज्जं" । अर्थात् - मूलसूत्र में पठित - श्रट्ठ दारियाश्रो - यह पाठ सांकेतिक है, और वह - अभग्नसेन के युवा होने के अनन्तर माता पिता ने शुभ तिथि नक्षत्र और करणादि से युक्त शुभ मुहूर्त में अभग्नसेन का एक ही दिन में आठ कन्याओं से पाणिग्रहण - विवाहसंस्कार करवाया - इस का संसूचक है । — जाव- यावत्-पद-आठ लड़कियों के साथ विवाह करने के अनन्तर भग्नसेन के माता पिता उस को इस प्रकार का ( निम्नोक्त) प्रीतिदान देते हैं- इस अर्थ का परिचायक है । जिसका परिमाण आठ हो उसे श्रष्टक कहते हैं। दान को दूसरे शब्दों में दाय कहते हैं और वह इस प्रकार है आठ करोड़ का सोना दिया जो कि आभूषणों के रूप में परिणत नहीं था। आठ करोड़ का वह सुवर्ण दिया जोकि आभूषणों के रूप में परिणत था, इत्यादि से लेकर यावत् आठ दासियें तथा और भी बहुत साधन नक- सुवर्ण, रत्न, मणि, मोती शंख, शिलाप्रवाल- मूंगा, रक्तरत्न और संसार की उत्तमोत्तम वस्तुयें तथा अन्य उत्तम द्रव्यों की प्राप्ति अभग्नसेन को विवाह के उपलक्ष्य में हुई । इन भावों को ही अभिव्यक्त करने के लिये सूत्रकार ने श्री दाम्रो - ये सांकेतिक पद संकलित किए हैं। "उपिं० भुजति" इन पदों का अर्थ टीकाकार के शब्दों में " - उप्पि० भुजति त्ति" -- श्रस्यायमर्थः:- "तए णं से अभग्ग सेणे कुमारे उप्पि पासायवर गए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थपहिं वरतरुणी संपत्तहिं बत्तीसइबद्धेहिं नाडपहिं उवगिजमाणे विउले माणुस्सर कामभोगे पञ्चरणुभवमाणे विहरइ" - इस प्रकार है । इस का तात्पर्य यह है कि विवाह के अनन्तर कुमार अभग्नसेन उत्तम तथा विशाल प्रासाद - महल में चला जाता है, वहां मृदंग बजते हैं, वरतरुणियें - युवति स्त्रियें बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उसका गुणानुवाद करती हैं । वहां अभग्नसेन उन साधनों से सांसारिक मनुष्य - सम्बन्धी कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करता हुआ सुख - पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा । तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - मूल -- तते गं से विजय चोरसेणावती अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते । (१) पेसणकारिया - इस पद के तीन अर्थ पाये जाते हैं। यदि इस की छाया “प्रोषणकारिका" की जाए तो इसका अर्थ- संदेशवाहिका - दूती होता है। और यदि इसकी छाया "पेषणकारिका" की जाए तो -- चन्दन घिसने वाली दासी, या 'गेहूं आदि धान्य पीसने वाली" यह अर्थ होगा । (२) छाया - ततः स विजयश्वोरसेनापतिः अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः । ततः For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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