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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३२] श्री वपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय अब सूत्रकार कुमार अभग्नसेन की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैंमूल-- तते णं से अभग्गसेणकुमारे उम्मुक्कवालभावे यावि होत्था, अट्ठ दारियो जाव अट्ठा दायो उप्पिं० भुजति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । अभग्गसेणकुमारे--अभग्नसेनकुमार । उम्मुक्कवालभावे यावि होत्था-बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हो गया था तब उस का । अट्ठ दारयाओ-आठ लड़कियों के साथ । जाव- यावत् विवाह किया गया, तथा उसे । अट्टओ-आठ प्रकार का । दाओ - प्रीतिदान-दहेज प्राप्त हुआ, वह । उप्पिं० - महलों के ऊपर । भुजति-उन का उपभोग करने लगा । मूलार्थ- तदनन्तर कुमार अभग्नसेन ने बालभाव को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश किया, तथा आठ लड़कियों के साथ उस का पाणिग्रहण-विवाह किया गया । उस विवाह में आठ प्रकार का उसे दहेज मिला और वह महलों में रह कर सानन्द उस का उपभोग करने लगा । टीका-पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्री गौतम से कहते है कि गौतम ! इस प्रकार पांचों धायमाताओं के यथाविधि संरक्षण में बढ़ता और फलता फूलता हुआ कुमार अभग्न बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हा तो उस का शरीरगत सौन्दर्य और भी चमक उठा । उस को देख कर प्रत्येक नरनारी मोहित हो जाता, हर एक का मन उस के रूपलावण्य की ओर आकर्षित होता और विशेष कर युवतिजनों का मन उस की ओर अधिक से अधिक खिंचता । उसी के फलस्वरूप वहां के आठ प्रतिष्ठित घरों की कन्याओं के साथ उस का पाणिग्रहण हुा । और आठों के यहां से उस को आठ २ प्रकार का पर्याप्त दहेज मिला, जिस को ले कर वह उन आठों कन्याओं के साथ अपने विशाल महल में रह कर सांसारिक विषय-भोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा । अथवा यूं कहिये कि उन आठ सुन्दरियों के साथ विशालकाय भवनों में रह कर आनन्द - पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा । यहां एक शंका हो सकती है, वह यह कि - जब अभग्नसेन के जीव ने पूर्व जन्म में भयंकर दुष्कर्म किये थे, तो उन का फल भी बुरा ही मिलना चाहिये था, परन्तु हम देखते हैं कि उसकी शैशव तथा युवावस्था में उस के लालन पालन का समुचित प्रबन्ध तथा प्रतिष्ठित घराने की रूपवती अाठ कन्याओं से उस का पाणिग्रहण एवं दहेज में विविध भान्ति के अमूल्य पदार्थों की उपलब्धि और उन का यथारुचि उपभोग, यह सब कुछ तो उस को महान पुण्यशाली व्यक्ति प्रमाणित कर रहा है। ___ यह शंका ऊपराऊपरि देखने से तो अवश्य उचित और युक्तिसंगत प्रतीत होती है, परन्तु जरा गम्भीर - दृष्टि से देखेंगे तो इस में न तो उतना औचित्य ही है और न युक्तिसंगतता । यह तो सुनिश्चित ही है कि इस जीव को ऐहिक या पारलौकिक जितना भी सुख या दुःख उपलब्ध होता है, वह उस के पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मों का परिणाम है । और यह भी (१) छाया-तत: सोऽभग्नसेनकुमारः उन्मुक्तबालभावश्चाप्यभवत् , अष्ट दारिका, यावदष्टको दायो, उपरि० भुक्ते । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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