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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२०] श्री वपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय स्नात यावत् अनिष्टला स्वप्न को fromल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में तिलक एवं मांगालिक कृत्यों को करके सर्व प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, बहुत से अशन, पान, arre और स्वादिम पदार्थों तथा 'सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्ना इन मादराओं का स्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचर रही हैं । सम्य तथा भोजन करके जो उचित स्थान पर आ गई हैं, जिन्हों ने पुरुष का वेष पहना हुआ है और जो दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूतक आदि से युक्त कवच - लोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् प्रयुध और प्रहरणों से युक्त हैं तथा जो वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहिर निकली हुई कृपाणों से, अंसगत – कन्धे पर रखे हुए शरधि - तरकशों से, सजीव - प्रत्यश्वा - ( डोरी) युक्त धनुषों से, कतया उत्क्षिप्त - फेंके जाने वाले, शरों-वाणों से, समुल्लसित - ऊचे किये हुए पाशों-जालों से अथवा शस्त्र विशेषों से, अवलम्बित तथा अवसारित चालित जंघाघंटियों के द्वारा, तथा क्षिप्रतूर्य (शीघ्र बजाया जाने वाला बाजा बजाने से महान् उत्कृष्ट - आनन्दमय महाध्वनि से, समुद्र के रव - शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को ध्वनित - शब्दायमान करती हुई, शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों तरफ़ का अवलोकन और उसके चारों तरफ़ भ्रमण कर दोहद को पूर्ण करती हैं । क्या ही अच्छा हो, यदि मैं भी इसी भान्ति अपने दोहद को पूर्ण करू, ऐसा विचार करने के पश्चात् दोहद के पूर्ण न होने से वह उदास हुई यावत आतेध्यान करने लगी । टीका - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार पाठकों को पूर्व - वर्णित चोरसेनापति विजय की शालाटवी नामक चोरपल्ली का स्मरण करा रहे हैं । पाठकों को यह तो स्मरण ही होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन आया था कि पुरिमताल नगर के ईशान कोण में एक विशाल, भयंकर टवी थौ । उस में एक चोरपल्ली थी । जिस के निर्माण तथा आकारविशेष का परिचय पहले पृष्ठ १९३ पर दिया जा चुका है । हमारे पूर्व परिचित निर्णय नामक अंडवाणिज का जीव जो कि स्वकृत पापाचरण से तीसरी नरक में गया हुआ था नरक की भवस्थिति को पूर्ण कर इसी चोरपल्ली में विजय की स्त्री स्कन्दश्री के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न होता है । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जीव दो प्रकार के होते हैं, एक शुभ कर्म वा दूसरे अशुभ कर्म वाले। शुभ कर्म वाले जीव जिस समय माता के गर्भ में आते हैं, तो उस समय माता के संकल्प शुभ और जब अशुभ कर्म वाले जीव माता के गर्भ आते हैं तो उस समय माता के संकल्प भी अशुभ अथच गर्हित होने लग जाते हैं । निर्णय नामक डवाणिज का जीव कितने शुभ कर्म उपार्जित किये हुए था ? इसका निर्णय तो पूर्व में आये हुए उसके जीवन – वृत्तान्त से सहज ही में हो जाता है । वह नरक से निकल कर सीधा स्कन्दश्री के गर्भ में आता है, उस को गर्भ में ये अभी तीन मास ही हुए थे कि उसकी माता स्कन्दश्री को दोहद उत्पन्न हुआ । जीवात्मा के गर्भ में आने के बाद लगभग तीसरे महीने गर्भिणी स्त्री को गर्भगत जीव (१) इन शब्दों के अर्थ के लिये देखो पृष्ठ १४४ । (२) इन पदों का अर्थ पृष्ठ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४५ पर लिखा जा चुका है ! For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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