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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सिहत । [२१५ के अंडों को, कबूतरी के अंडों को, टिट्रिभो (टिटिहरी) के अंडों को, बगुली के अडों को, मोरनी के अंडों को और मुर्गो के अंडों को तथा और भी अनेक जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जन्तुओं के अडो को लेकर बांस की पिटारियों में भरते थे, भर कर निर्णय नामक अंडवाणिज के पास आते थे, आकर उस अडवाणिज को अंडों से भरी हुई वे पिटारियां दे देते थे। ___ तदनन्तर निर्णय नामक अडवाणिज के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से काकी यावत् कुकड़ी (मुर्गी) के अडों तथा अन्य जलचर, स्थलनर और खेचर आदि जन्तुओं के अण्डों को तवों पर, कड़ाहों पर, हांडों में और अंगारों पर तलते थे. भूनते थे तथा पकाते थे । तलते हुए, भूनते हुए, और पकाते हुए राजमार्ग के मध्यवर्ती आपणों-दुकानों पर अथवा- राजमार्ग की दुकानों के भीतर, अंडों के व्यापार से प्राजो विका करते हुए समय व्यतीत करते थे। . तथा वह निर्णय नामक अंडवाणिज स्वयं भी अनेक काकी यावत् कुकड़ी के अंडों जो कि पकाये हुए, तले हुए और भूने हुए थे, के साथ सुरा आदि पंचविध मदिराओं का श्रास्वादनादि करता हश्रा. जोवन व्यतीत कर रहा था । तदनन्तर वह निर्णय नामक अंडवाणिज इस प्रकार के पाप कर्मों के करने वाला, इस प्रकार के कर्मों में प्रधानता रखने बाला इन कर्मों को विद्या-विज्ञान रखने वाला, और इन्हीं कर्मों को अपना आचरण बना कर अत्यधिक पाप कमों को उपार्जित कर के एक सहस्र वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास-मृत्यु के समय में काल करके तीसरी पृथिवी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम स्थिति वाले नारकों में नारंकी रूप से उत्पन्न हुआ । टीका-प्रस्तत सत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हए भगवान महावीर स्वामी ने फ़रमाया कि गौतम ! भारतवर्ष में पुरिमताल नामक एक नगर था. जो व्यापारियों की दृष्टि से, शिल्पियों की दृष्टि से एवं आर्थिक दृष्टि से पूर्ण वैभवशाली था । नगर विशाल होने के साथ साथ काफ़ी चहलपहल वाला था । उस में उदित नरेश का राज्य था. जो कि महान् प्रतापी था ! उस नगर में निर्णय नाम का एक अंडवाणिज-अंडों का व्यापारी रहता था, जो कि काफ़ी धनी और अपनी जाति में सर्व प्रकार से प्रतिष्ठित माना जाता था। परन्तु धर्म-सम्बन्धी कार्यों में निर्णय पराङ मुख रहता था । उस के विचार सावध प्रवृत्ति की ओर अधिक झुके हुए थे अनाथ, मूकप्राणियों के वध करने में प्रवृत्त होने से उसके विचार अधिक कर हो गये थे। उस के अन्दर सांसारिक प्रलोभन बेहद बढ़ा हुआ था । इसीलिये उस का प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था। सारांश यह है कि जीवहिंसा करना उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य बना हुआ था। उसी पर उसका जीवन निर्भर था। निर्णय के अनेको नौकर थे, जिन्हें जोवन-निर्वाह के लिये उसकी तर्फ से वृत्ति-श्राजीविका दी जाती थी। कई एक को अन्न दिया जाता था, अर्थात् कई एक को भोजन मात्र और कई एक को रुपया पैसा । ये नौकर पुरुष अपने स्वामी के आदेशानुसार काम करते तथा अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते थे । वे प्रतिदिन प्रातःकाल उटते, कुद्दाल और बांस की पिटारियों को उठाते और नगर के बाहिर चारों तरफ़ घूमते । जहां कहीं उन्हें काकी मयूरी, कपोती और कुकड़ी आदि पक्षियों के अंडे मिलते, वहीं से वे ले लेते । इसके अतिरिक्त अन्य जलचर, स्थलचर तथा खेचर आदि जन्तुओं के अंडों की उन्हें जहां से प्राप्ति होती वहीं से लेकर वे अपनी २ पिटारियों को भर लेते थे, तथा लाकर निर्णय के सुपुर्द कर देते । यह उन का प्रतिदिन का काम था। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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