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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९८ ] श्री विपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय (१) आधिपत्य-अधिपति राजा का नाम है, उसका कर्म आधिपत्य कहलाता है । अर्थात् राजा लोगों के प्रभुत्व को श्राधिपत्य कहते हैं " (२) पुरोवर्तित्व - श्रागे चलने वाले का नाम पुरोवर्ती है । पुरोवर्ती मुख्य का कर्म पुरोवर्तित्व कहलाता है, अर्थात् मुख्यत्व को ही पुरोवर्तित्व शब्द से अभिव्यक्त किया गया है । (३) स्वामित्व - स्वामी नेता का नाम है । उस का कर्म स्वामित्व कहलाता है, अर्थात् नेतृत्व का ही पर्यायवाची स्वामित्व शब्द है 1 (४) भतृत्व - पालन पोषण करने वाले का नाम भर्ता है । उसका कर्म भतृत्व कहलाता है । भतृत्व को दूसरे शब्दों में पोषकत्व से भी कहा जा सकता है । (५) महत्तरकत्व - उत्तम या श्रेष्ठ का नाम महत्तरक है । उसका कर्म महत्तरकत्व कहलाता | महत्तरकत्व कहें या श्रेष्ठत्व कहें यह एक ही बात है। (६) श्रज्ञेश्वर सैनापत्य - इस पद श्राज्ञेश्वरश्वासौ सेनापतिः श्रज्ञेश्वर सेनापतिः, श्रज्ञेश्वरस्य श्रज्ञाप्रधानस्य यत् सेनापत्यं निष्पन्न होते हैं । वे निम्नोक्त हैं Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir के - " श्राज्ञायामीश्वरः श्रज्ञेश्वरः श्राज्ञाप्रधानः, तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वर सैनापत्यम् । अथवातदाज्ञेश्वर सैनापत्यम्” इन विग्रहों से दो अर्थ (१) जो स्वयं ही आज्ञेश्वर है और स्वयं ही सेनापति है, उसे र्म श्रज्ञेश्वर सैनापत्य कहलाता है । आज्ञेश्वर राजा का आज्ञेश्वर सेनापति कहते हैं । नाम है । सेना के संचालक को सेनापति कहा जाता है । (२) आज्ञेश्वर का जो सेनापति उसे आज्ञेश्वरसेनापति कहते हैं, उसका भाव अथवा कर्म शेश्वर सैनापत्य कहलाता है । प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार को प्रथम अर्थ अभिमत है, क्योंकि विजयसेन चोरसेनापति स्वयं ही चोरपल्ली का राजा है, तथा स्वयं ही उसका सेनापति बना हुआ है । प्रस्तुत सूत्र में शालाटवी नामक चोरपल्ली का विवेचन तथा चोरसेनापति विजयसेन की प्रभुता का वर्णन किया गया है । अत्र अग्रिम सूत्र में विजयसेन चोरसेनापति के कुकृत्यों का वर्णन किया जाता है १ मूल - तते गं से विजए चोरसेणावती बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठभेगा य संधियगारा य खंडपट्टारा य अन्नेसिं च बहूणं छिन्न-भिन्न वाहिराहियाणं For Private And Personal (१) छाया - ततः स विजयः चोरसेनापतिः बहूनां चोराणां च पारदारिकाणां च ग्रन्थि - भैदकानां च सन्धिच्छेदकानां च खंडपट्टानां चान्येषां च बहूनां छिन्नभिन्नवहिष्कृतानां कुटङ्कश्चाप्यभवत् । ततः स विजयश्चोरसेनापतिः पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्यं जनपदं बहुभिर्ग्रामघातैश्च, नगरघातैश्च गोग्रहणैश्व, बन्दिग्रहणश्च, पान्थकुट्टेश्व, खत्तखननैश्चोत्पीडयन् २ विधर्मयन् २ तर्जयन् २ ताडयन् २ निःस्थानान् निर्धनान् निष्कणान् कुर्वाणो विहरति | महाबलस्य राजः अभीक्ष्णं २ कल्पायं गृह्णाति । तस्य विजयस्प चोरसेनापतेः स्कन्दश्री: नाम भार्याऽभवद् श्रहीन० । तस्य विजयचोरसेनापतेः पुत्रः स्कन्दश्रियो भार्याया श्रात्मजः श्रभमसेनो नाम दारकोऽभवद्, अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रिय- शरीरो विज्ञातपरिणतमात्रः यौवनकमनुप्राप्तः ।
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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