SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९६] श्रो विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय वहां से सुगमता-पूर्वक भाग कर अपना जीवन बचा लिया जाए । “विदित-जण-दिगण-निग्गम-प्पवेसा-विदितानामेव प्रत्यभिज्ञातानां जनानां दत्तो निर्गमः प्रवेश्च यस्यां सा तथा-" अर्थात् उस चोरपल्ली के अधिकारियों की ओर से वहां के प्रति हारियों को यह कड़ी श्राज्ञा दे रखी थी कि चोरपल्ली में परिचित-विश्वासपात्र व्यक्ति ही प्रवेश कर सकते है, और परिचित ही वहां से निकल सकते हैं । अधिकारियों की ऐसी आज्ञा का अभिप्राय इतना ही है कि कोई राजकीय गुप्तचर चोरपल्ली में प्रवेश न कर पाए और वहां से कोई बन्दी भी भाग न जाए । इन विशेषणों द्वारा वहां के अधिकारियों की योग्यता, दीर्घदर्शिता, रक्षासाधनों की ओर सतर्कता एवं अनुशासन के प्रति दृढ़ता का पूरा पूरा परिचय मिल जाता है । “-कूवियस्स जणस्स दुप्पहंसा-" यहां पठित " कूवियस्स" के स्थान पर “कुवियस्स" ऐसा पाठान्तर भी मिलता है । प्रथम "कृविय, पद को कोषकार देश्य पद (देश विशेष में प्रयुक्त होने वाला) बतलाते हैं और इसका-मोषव्यावर्तक अर्थात् चुराई हुई चीज की खोज लगा कर उसे लाने वाला-ऐसा अर्थ करते हैं । तथा दूसरा "कुविय" यह पद यौगिक है, जिस का अर्थ होता हैकुपित अर्थात् क्रोध से पूर्ण । तात्पर्य यह है कि उस चोरपल्ली में शस्त्र अस्त्रादि का और सैनिकों का ऐसा व्यापक बल एकत्रित किया गया था कि वह चोरपल्ली मोषव्यावर्तकों से या क्रोधित शत्रओं से भी प्रध्वस्या नहीं थी । दूसरे शब्दों में कहें तो -इन से भी उस चोरपल्ली का ध्वंस-नाश नहीं किया जा सकता था-यह कहा जा सकता है। सूत्रकार ने “कूवियस्स" का जो “ सुबहुयस्स" यह विशेषण दिया है, इस से तो चोरपल्ली के रक्षा-साधनों की प्रचुरता का स्पष्टतया परिचय प्राप्त हो जाता है। सारांश यह है कि मोषव्यावर्तकों या कोपाविष्ट व्यक्तियों की चाहे कितनी बड़ी संख्या क्यों न हो फिर भी वे चोरपल्ली पर अधिकार नहीं कर सकते थे और ना ही उसको कुछ हानि पहुँचा सकते थे । इन सब बातों से उस समय की परिस्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । ऐसी अटवियों में लोगों का आना जाना कितना भयग्रस्त और आपत्ति-जनक हो सकता था । इस का भी अनुमान सहज में ही किया जा सकता है । "अहम्मिए जाव लोहियपाणी"--यहां पठित-जाव-यावत्-पद से "अधम्मिहे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपलज्जणे, अधम्मसीलसमुदायारे, अधम्मेणं चेय वित्ति कप्पेमाणे विहरइ हणछिन्दभिन्दवियत्तए'--इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । अधर्मी आदि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है (१) अधर्मी-धर्म- (पाप) पूर्ण आचरण करने वाला। (२) अधर्मिष्ट-अत्यधिक अधार्मिक अथवा अधर्म ही जिस को इष्ट-प्रिय है। (३) अधर्माख्यायी-अधर्म का उपदेश देना ही जिसका स्वभाव बना हुआ है । (४) अधर्मानुश या अधर्मानुग-धर्म-शून्य कार्यों का अनुमोदन-समर्थन करने वाला अथवा अधर्म का अनुगमन-अनुसरण करने वाला अर्थात् अधर्मानुयायी। (५) अधर्म-प्रलोकी-अधर्म को उपादेयरूप से देखने वाला अर्थात् अधर्म ही उपादेयग्रहण करने योग्य है, यह मानने वाला। (६) अधर्म-प्ररजन-धर्म-विरुद्ध कार्यों से प्रसन्न रहने वाला। (७) अधर्मशील-समुदाचार-अधर्म करना ही जिस का शील-स्वभाव और समुदाचार For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy