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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९४ श्री वपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय उस शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजय नाम का चोरसेनापति रहता था, जो कि महा अधर्मी यावत् उस के हाथ खून से रंगे रहते थे, उस का नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था । वह शूरवीर, दृढ़प्रहारी, साहसी, शब्दवेधी - शब्द पर बाण मारने वाला और तलवार तथा लाठी का प्रधान योद्धा था । वह सेनापति उस चोरपल्ली में चोरों का आधिपत्यस्वामित्व यावत् सेनापतित्व करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था । टीका - श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विनम्र शब्दों में निवेदन किया कि भगवन् ! आप श्री ने विपाकसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन का जो अर्थ सुनाया है, वह तो मैंने सुन लिया है। अब आप कृपया यह बतलाने का अनुग्रह करें कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है १, यह तीसरे अध्ययन की प्रस्तावना है, जिस को सूत्रकार ने मूलसूत्र में " तच्चस्स उक्खेवो" इस पदों द्वारा सूचित किया है । इस की वृत्तिकार–सम्मत व्याख्या " - तृतीयाध्ययनस्योत्क्षेपः प्रस्तावना वाच्या, सा चैवम् - " - "जइ णं भंते ! समं भगवया जाव संपत्तणं दुहविवागाणं दोच्चस्स उज्झयणस्स श्रयमट्ठे परणत, तच्चस्त भंते! के ट्ठे परणत १ " इस प्रकार है । अर्थात् उत्क्षेप शब्द प्रस्तावना का परिचायक है । प्रस्तावना का उल्लेख ऊपर कर दिया गया है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत अध्ययन में श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की प्रार्थना पर जो कुछ कथन किया है, उसका वर्णन किया गया है। श्री जम्बूस्वामी की जिज्ञासा - पूर्ति के निमित्त तृतीय अध्ययनगत अर्थ का प्रतिपाद्य विषय का आरम्भ करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी फ़रमाने लगे हे जम्बू ! जब इस अवसर्पिणी काल का चौथा आारा बीत रहा था, उस समय पुरिमताल समस्त गुणों से युक्त और वैभव - पूर्ण था उसके उद्यान था । उस उद्यान में अमोघदर्शी नाम नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था । जो कि नगरोचित ईशान कोण में अमोघदर्शी नाम का एक रमणीय से प्रसिद्ध एक यक्ष का स्थान बना हुआ था । पुरिमताल नगर का शासक महावल नाम का एक राजा था । महाबल नरेश के राज्य की सीमा पर ईशान कोण में एक बड़ी विस्तृत अटवी थी । उस अटवी में शालाटवी नाम की एक चोरपल्ली थी । वह चोरपल्ली पर्वत की एक विषम कन्दरा के प्रान्त भाग - किनारे पर अवस्थित थी । वह वंशजाल के प्राकार ( चारदीवारी) से वेष्टित और पहाड़ी खड्डों के विषम-मार्ग की परिखा से घिरी हुई थी। उस के भीतर जल का सुचारु प्रबन्ध था परन्तु उस के बाहिर जल का अभाव था। भागने या भाग कर छिपने वालों के लिये उस अनेक गुप्त दरवाज़े थे। उस चोरपल्ली में परिचितों को ही आने और जाने दिया जाता था । अथवा यूं कहें कि उस में सुपरिचित व्यक्ति ही आ जा सकते थे । अधिक क्या कहें वह शालाटवी नाम की चोरपल्ली चोरग्राही राजपुरुषों के लिये भी दुरधिगम थच दुष्प्रवेश थी । इस चोरपल्ली में विजय नाम का चोरसेनापति रहता था । वह बड़े क्रूर विचारों का था, उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे । उस के अत्याचारों से पीड़ित सारा प्रान्त उसके नाम से कांप उठता था । वह बड़ा निर्भय, बहादुर और सब का डट कर सामना करने वाला था । उस का प्रहार बड़ा तीव्र और अमोघ निष्फल न जाने वाला था । शब्दभेदी बाण के प्रयोग में वह बड़ा निपुण था । तलवार और लाठी के युद्ध में भी वह सब में अग्रेसर था । इसी कारण वह ५०० For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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