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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - www.kobatirth.org अथ तृतीय अध्याय संसार का प्रत्येक प्राणी जीवन का अभिलाषी बना हुआ है, इसी लिये संसार की अन्य अनेकों वस्तुएं प्रिय होने पर भी उसे जीवन सब से अधिक प्रिय होता है। जीवन को सुखी बनाना उस का सब से बड़ा लक्ष्य है, जिस की पूर्ति के लिये वह अनेकानेक प्रयास भी करता रहता है। मानव प्राणी को सुख की जितनी चाह है उस से ज़्यादा दुःख से उसे घृणा है । दुःख का नाम सुनते ही वह तिलमिला उठता है । इस से (दु.ख से ) बचने के लिये वह बड़ी से बड़ी कठोर साधना करने के लिये भी सन्नद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सुखों को प्राप्त करने और दुःखों से विमुक्त होने की कामना प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है । इसी लिये विचारशील पुरुष दु.ख को साधन-सामग्री को अपनाने का कभी यत्न नहीं करते प्रत्युत सुख की साधनसामग्रा को अपनाते हुए अधिक से अधिक आत्मविकास की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं । संसार में दो प्रकार के प्राणी उपलब्ध होते हैं, एक तो वे हैं जो सभी सुखी रहना चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता - इस सिद्धान्त को हृदय में रखते हुए किसी को कभी दुःख देने की चेष्टा नहीं करते और जहां तक बनता है वे अपने सुखों का बलिदान करके भी दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा ". -सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न दुःख पावे - " इस पवित्र भावना से अपनी आत्मा को भावित करते रहते हैं । इस के विपरीत दूसरे वे प्राणी हैं, जिन्हें मात्र अपने हो सुख की चिन्ता रहती है, और उस की पूर्ति के लिये किसी प्राणी के प्राण यदि विनष्ट होते हों तो उन का उसे तनिक ख्याल भी नहीं आने पाता, ऐसे प्राणी अपने स्वार्थ के लिये किसी भी जघन्य आचरण से पीछे नहीं हटते, और वे पर पीड़ा और पर- दुःख को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं, साथ में वे बुरे कर्म का फल बुरा होता है और वह अवश्य भोगना पड़ता है, इस पवित्र सिद्धान्त को भी अपने मस्तिष्क में से निकाल देते हैं। ऐसे मनुष्य अनेकों हैं और उन में से एक श्रममपेन नाम का व्यक्ति भी है । प्रस्तुत तीसरे अध्ययन में इसी के जीवन वृत्तान्त का वर्णन किया गया है । उस का उपक्रम करते हुए सूत्रकार इस प्रकार वर्णन करते हैं - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूल पुरिमताले गामं (१) छाया - तृतीयस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये पुरिमतालं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध० । तस्य पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अमोघदर्शि उद्यानम् । तत्र अमोघदर्शिना यक्षस्य श्रायतनमभवत् । तत्र पुरिमताले महावलो नाम राजाऽभूत् । तस्य पुरिमतालस्य नगरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे देशप्रान्ते श्रटवीसंश्रिता, शालाटवी नाम चोरपल्ल्यभवत्, विषम - गिरिकन्दर कोलम्बसंनिविष्टा, वंशी-कलंक प्राकार-परिक्षिप्ता, छिन्नशैलवित्रमप्रातपरिखोपगूढा, अभ्यन्तर पानीया, सुदुर्लभजलपर्यन्ता, अनेक खंडी, विदितजनदत्त निर्गमप्रवेशा, सुबहोरपि मोषव्यावर्तकजनस्य दुष्प्रध्वस्या चाप्यभवत् । तत्र शालाटव्यां चोरपल्ल्यां विजयो नाम चोरसेनापतिः परिवसति धार्मिको यावत्, लोहितपाणिः, बहुनगरनिर्गतयशाः शूरो, दढप्रहारः, साहसिकः, शब्दवेधी, असियष्टिप्रथम मल्लः । स तत्र शालाटव्यां चौरपल्ल्यां पञ्चानां चोरशतानामाधिपत्यं यावत् विहरति । १ ' तच्चस्स उक्खेत्रो एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समए For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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