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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित | [ १८७ है, तब मन्त्रचूर्ण शब्द से “ - मन्त्र द्वारा मन्त्रित चूर्ण - - " यह अर्थ बोधित होता है । अर्थात् प्रियसेन के पास ऐसे चूर्ण थे जिन्हें वह मन्त्रित करके रखा करता था और उन से अपना मनोरथ साधा करता था । विद्याप्रयोगों और मन्त्र - चूणां द्वारा प्रियसेन क्या काम लिया करता था ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हृदयोडायन इत्यादि विशेषणों द्वारा दिया है । इन की व्याख्या निम्नोक्त है - (१) हृदयोडायन - हृदय को शून्य बना देने वाला अर्थात् हृदय का श्राकर्षण करने वाला । (२) निह्नवन-पदार्थों को अदृश्य करने वाला अर्थात् जिसके प्रभाव से अपहृत धन वाले धनिक भी अपने अपहृत धन का प्रकाश नहीं कर पाते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो ' वे विद्याप्रयोग और मन्त्रचूर्ण ऐसे अद्भुत थे कि जिन के द्वारा किसी का धन चुराया भी गया हो, फिर भी वेधन वाले अपने धनापहार की बात दूसरों को नहीं कहते थे - " यह कहा जा सकता है (३) प्रस्नवन - दूसरों को प्रसन्न करने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन चूर्ण का उपयोग करता वे झटिति अपने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे . पर विद्या और मन्त्र (४) वशीकरण - वश में कर लेने वाले अर्थात् प्रियसेन जिन पर विद्या और मन्त्रचूर्ण का प्रयोग करता वे उस के वश में हो जाते थे । (५) श्रभियोगिक-अभियोग का अर्थ है - परवशता । जिन का उन्हें श्राभियोगिक कहा जाता है । अभियोग द्रव्य और भाव से दो प्रकार का औषध आदि का योग हो, उसे द्रव्याभियोग कहते हैं और जिस में विद्या वह भावाभियोग कहलाता है । एवं प्रयोजन पारवश्य हो, होता है। जिस में मन्त्र का योग हो, "6 “ - जहा पढमे जाव पुढवी० - "यहां पठित "- जाव यावत् - ' पद से प्रथम अध्ययन गत “ – उव्वज्जिहिति । तत्थ गं कालं किया दोच्चार पुढवीप उक्कोसियाए” से लेकर “ – ते उ० श्राउ० पुढविकासु श्ररोगसतसहस्सकखुत्तो उवबज्जिहिति- " यहां तक का पाठ ग्रहण करना सूत्र - कार को अभिमत है तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की आगामी भवसम्बन्धी जीवन का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार उज्झितक के विषय में भी जान लेना चाहिये । अन्तर मात्र नाम का है, अर्थात् प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का नाम निर्दिष्ट हुआ है जब कि इस मेंदूसरे में उज्झितक कुमार का । For Private And Personal - इस के अतिरिक्त जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की अन्तिम जीवनी का विकास - प्रधान कथन किया गया है अर्थात् जिन जिन साधनों से श्रेष्ठी-पुत्र के भव में आकर मृगापुत्र ने अपने जीवन का उद्धार किया और वह देवलोक से व्यव कर महाविदेह के क्षेत्र में दीक्षित हो कर कर्म – रहित बना । ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार ने भी तथारूप स्थविरों के पास से सम्ब क्त्व को प्राप्त कर के संयम के यथाविधि अनुष्ठान में कर्मबन्धनों को तोड़ कर निर्वाण - पद को प्राप्त किया, इन सब बातों की सूचना प्रस्तुत अध्ययन में " वोहिं० अणगारे० सोहम्मे कप्पे० " और " - जहा पढमे जाव - " इत्यादि पदों के संकेत में दे दी गई है, ताकि विस्तार न होने पावे और प्रतिपाद्यार्थ समझ में आ सके । “ – बोहिं०–” यहां दिये गये बिन्दु से “ - बोहिं बुज्झिहिति, केवलबोहिं बुज्झित्ता श्रमाराम श्रगारियं पव्वइहिति । से णं भविस्सर (अर्थात् बोधि-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा, सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह गृहस्थावस्था को त्याग कर अनगार - धर्म में दीक्षित हो जायेगा -
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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