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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१८५ होगी. उस के प्रभाव से हृदय में वैराग्य उत्पन्न होगा और वह साधु-धर्म को गीकार करेगा । धर्म का यथाविधि ( विधि के अनुसार ) पालन करके आयुष्कर्म की समाप्ति होने पर मानव — शरीर को त्याग कर सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा, वहां से व्यव कर महाविदेह में उत्पन्न होगा | वहां युवावस्था को प्राप्त होता हुआ संयम को ग्रहण करेगा और संयमानुष्ठान से कर्मों का क्षय करता हुआ अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा । यह उसके आगामी भवों का संक्षिप्त वृत्तान्त है, जो कि वीर प्रभु ने गौतम स्वामी को सुनाया था। इस पर से मानव प्राणी की सांसारिक यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट एवं विलक्षण होती है ? इस का अनुमान सहज ही में किया जा सकता है। " वेयड्ढगिरिपाय मूले " इस में उल्लेख किये गये वैताढ्य पर्वत का वर्णन मृगापुत्र के भावी जन्मों के वर्णन में पृष्ठ ९४ पर कर दिया गया है । उसी भान्ति यहां पर भी समझ लेना चाहिये । 1 ' ततो नंतर उव्वधित्ता " इस पाठ में उल्लेख किये गये " अणंतरं " पद का अर्थ - अनन्तर व्यवधानरहित । इसे समझने के लिये एक उदाहरण लीजिये - एक जीव पूर्वकृत पाप कर्मों के फल - स्वरूप रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होता है । उसकी भवस्थिति पूरी होने पर वह नारकीय जीव वहां से निकल कर मनुष्यलोक में आकर मानवरूप में जन्म लेता है। वहां पर आयु समाप्त करके वह वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार एक दूसरा जीव है जो पहले नरक में गया और वहां से निकल कर सीधा वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ । अब विचार कीजिये कि दोनों ही जीव वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हो रहे हैं और दोनों ही पहली नरक से निकल कर आ रहे हैं। इन में प्रथम जोव तो परम्परा से ( मध्य में मनुष्यभव करके ) श्राया हुआ है जब कि दूसरा साक्षात् सीधा ही श्राया है। नरक से उद्वर्तन – निकलना तो दोनों का एक जैसा है, परन्तु पहले का उद्ववर्तन तो अन्तर - उद्वर्तन है और दूसरे का अनन्तरउद्वर्तन कहलाता है । - हमारे पूर्व-परिचित उज्झितक कुमार प्रथम नरक से निकलकर बिना किसी और भव करने सीधे वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जन्में, अतः इन का निकलना अनन्तर - उद्वर्तन - कहलाता है । श्रनन्तर पद का यहां पर इसी श्राशय को व्यक्त करने के लिये प्रयोग किया गया है । मति और गृद्ध आदि पदों की व्याख्या ऊपर पृष्ठ १७३ पर की जा चुकी है । पाठक वहां पर देख सकते हैं । "एकमे४" यहां पर दिया गया ४ का अंक उसके साथ के बाकी तीन पदों का ग्रहण करना सूचित करता है । वे तीनों पद इस प्रकार हैं- " एयप्पहाणे, एयविज्जे, एयसमुदायारे”। इन का भावार्थ पहले पृष्ठ १७९ के टिप्पण में लिखा जा चुका है, पाठक वहां पर देख सकते हैं । " वद्धेहिंति" इस क्रिया - पद के दो अर्थ देखने में आते हैं। प्रथम अर्थ - पालन पोषण करेंगे - यह प्रसिद्ध ही हैं और वृत्तिकार इसका दूसरा अर्थ करते हैं । वे लिखते हैं " बद्धेहिंति" त्ति वर्द्धितकं करिष्यतः" अर्थात् उसे नपुंसक बनावेंगे । दूसरे शब्दों में कहें तो “ – उसकी पुरुषत्व शक्ति को नष्ट कर डालेंगे - " यह कह सकते हैं ॥ आधुनिक शताब्दी (किसी सम्वत् के सैंकड़े के अनुसार एक से सौ वर्ष तक का समय) में उपलब्ध विपाकसूत्र की प्रतियों में “तते णं तं दारयं अम्मापितरो जायमेकं वद्धेहिंति २ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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