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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८२] श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय से । पञ्चायाहिति-उत्पन्न होगा । तत्य-वहां पर । सेणं-वह । उम्मुक्कबालभावे-बाल्य - अवस्था को त्याग कर अर्थात् युवावस्था को प्राप्त हुआ। तहारूवाणं-तथारूप-शास्त्रवर्णित गुणों को धारण करने वाले। थेराणं - स्थविरों -वृद्ध जैन साधुओं के । अंतिके -पास । केवल-केवल -- निर्मल अर्थात् शंका. कांक्षा आदि दोषों से रहित । बाहिं०- बोधिलाभ सम्यक्त्वलाभ प्राप्त करेगा, तदनन्तर । अणगारे० .-अनगार होगा वहां से कान करके। मोहम्मे कम्य० --सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा शेष । जहा पढ़ने-जिस प्रकार प्रथम अध्याय में मृगापुत्रविषयक वर्णन किया गया है वैसे ही । जाब -यावत् । अंतं-कर्मों का अर्थात् जन्म मरण का अन्त । काहि तिकरेगा, इति शब्द समाप्ति का बोधक है । निक्खेवो-निक्षेप- उपसंहार की कल्पना कर लेनी चाहिए। वितियं -द्वितीय । अज्क्रयणं - अध्ययन । समत-समाप्त हुआ। मूलार्थ-भदन्त ! उज्झितक कुमार यहां से कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर काल करके कहां जाएगा और कहां उत्पन्न होगा? गौतम ! उज्झिाक कुमार २५ वर्ष को पूर्णायु को भोग कर आज ही त्रिभागावशेष दिन में अर्थात् दिन के चौथे प्रहर में शूनी द्वारा भेद को प्राप्त होता हुआ काल-मास में काल कर के रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी-नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर सीधा इसो जम्बूद्वीप नामक द्वोर के अन्तर्गत भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत के पादमूल-तलहटी (पहाड़ के नीचे की भूमि में वानर-कुल में वानर के रूप से उत्पन्न होगा । वहां पर बाल्यभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह तियग्भोगों-पशुसम्बन्धी भोगों में मूञ्छित. आसक्त, गृद्ध आकांक्षावाल', प्रथित-भोगों के स्नेहपाश से जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्न-भोगों में ही मन को लगाए रखने वाला, हो कर उत्पन्न हुए वानर-शिशुओं का अवहनन किया करेगा। ऐसे कर्म में तल्लीन हुआ वह कालमास में काल करके इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्त - र्गत भारतवर्ष के इन्द्र पुर नामक नगर में गणिका - कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । माता पिता उत्पन्न हुए उस बालक को वर्द्धितक-नपुंसक करके नपुसक कर्म सिखलावेंगे । बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उस के माता पिता उन का “प्रियसेन " यह नामकरण करेंगे। बालकभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ-विशेष ज्ञान रखने वाला एवं बुद्धि आदि की परिपक्क अवस्था को उपलब्ध करने वाला वह प्रियसेन नपुंसक रूप, यौवन और लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट - उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा। तदनन्तर वह मियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा ईश्वर यावत् अन्य मनुष्यों को अनेकविध विद्याप्रयागों से, मंत्रों द्वारा मंत्रित चूणे-भस्म आदि के योग से हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में कर देने वाले तथा पराधोन -परवश कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत कर के मनुष्य-सम्बन्धो उदार - प्रधान भोगों का उपभोग करता हुश्रा समय व्यतीत करेगा । वह प्रियसेन नपुंसक इन पापपूण कामों को ही अपना कर्तव्य, प्रधान लक्ष्य, तथा विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण बनाएगा इन दुष्प्रवृतियों के द्वारा वह अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके १२० वर्षे को परमायु का उपभोग कर काल-मास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सरोसूप-छातो के बल से For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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