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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१७५ ययं दारयं कामझयाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइ 'जाव विहग्माणं पासति २ त्ता आसुरुचे ४ तिवलियभिउडि निडाले साहट्ट उझिययं दारयं पुरिसेहिं गेहाविति, गेहावित्ता अद्विमुट्ठिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहितग · करेति करेत्ता अवरोडगबंधणं करेति करेत्ता एएणं विहाणेणं वज्झं प्राणवेति । एवं खलु गोतमा ! उझिया दारए पुरा पोराणाणं कम्माणं २जाव पच्चणुभवमाणे विहरति । पदार्थ-इमं च णं-और इतने में । मित्त राया-मित्र राजा । राहाते-स्नान कर । जाव-यावत् । पायच्छित्त-दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में तिलक एवं अन्य मांगलिक कृत्य करके । सव्वालंकारविभूसिते-सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो । मणुस्सवग्गुरापरिक्खिते-मनुष्यसमूह से घिरा हुआ । जेणेव-जहां कामज्झयाएकामध्वजा । गणियाए-गणिका का । गिहे-घर था । तेणेत्र -- वहीं पर । उवागच्छति २ त्ता-आता है आकर । तत्थ णं-वहां पर । कामझयाए गणियाए-कामध्वजा गणिका के । सद्धिं -साथ । उसलाई-उदार --प्रधान । भोग-भोगाई-भोगपरिभोगों में । जाव-यावत् । विहरमाणं-विहरणशील । उज्झिययं दारयं-उज्झितक कुमार बालक को । पासति २ ता-देखता है देख कर । आसुरुत्ते-क्रोध से लाल हुआ। निडाले - मस्तक पर । तिवलियभिउडिं-त्रिवलिकातीन रेखाओं से युक्त भृकुटि (तिउड़ी) लो वन-विकार विशेष को । स हड -धारण कर अर्थात् क्रोधातुर हो भृकुटी चढ़ाकर । पुरिसेहि-अपने पुरुषों द्वारा । उझिययं दारयं-उज्झितक कुमार को । गण्हावेति-पकडवा लेता है । गण्हावेत्ता पकड़वा कर । अहि -- यष्टि लाठी । मुट्ठि-मुष्टि मुक्का, पंजावी भाषा में इसे 'घसुन्न' कहते हैं । जागु-जानु -घुटने । कोप्पर - कूर्पर कोहनी के । पहार-प्रहरणों से । संभग्ग-संभग्न-चूर्णित तथा । महित-मथित । गतं गात्र वाला । करेति-करता है । करेता-करके । अव प्रोडगबंधणं-अवकोटक बन्धन [ जिस में रस्सी से गला और हायों को मोड़ कर पृष्ठ भाग के साथ बान्धा जाता है उसे अवकोटकबन्धन कहते हैं ] से बद्ध । करेति-करता है अर्थात् उक्त बन्धन से बांधता है। करेत्ता-बांधकर । एरणं-इस । विहाणेणं - प्रकार से । वझ प्राणवेति - यह वध्य है ऐसी आज्ञा देता है । गातमा ! -- हे गौतम ! एवं - इस प्रकार । खनु-निश्चय ही । उज्झियए-उज्झितक । दारए -- बालक । पुरा-पूर्व । पोराणाणं कम्माणं - पुरातन कर्मों के विपाक – फल का । जाव-- यावत् । पच्चणुभ प्रमाणे - अनुभव करता हुा । विहरति-विहरण करता है । . मूलार्थ-इधर किसो समय मित्र नरेश स्नान य बत् दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के सम्पूर्ण अलंकारों से विभूषित हो मनुष्यों से आवृत हुआ कामध्वजा गणिका के घर पर गया । वहां उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धो विषय -भोगों का उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देग्यो, देखते ही वह क्रोध से लाल पीला हो गया, और मस्तक में त्रिवलिक (१) "-जाव- यावत्-" पद से "-भुजमाणं -" इस पद का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। (२) "-जाव-यावत्-" पद से "-दुच्चिएणाणं, दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं, पावाणं, कडाणं, कम्माणं, पावगं फलवित्तिविसेसं-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । इन का अर्थ पृष्ठ ४७ पर दिया जा चुका है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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