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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । लासकदेशोत्पन्न स्त्री, लकुशिका-लकुशदेशोत्पन्न स्त्री, दमिला-द्रविड़देशोत्पन्न स्त्री, सिहंलि-सिंहल( लंका ) देशोत्पन्न स्त्री, आरबी-अरबदेशोत्पन्न स्त्री, पुलिन्दी-पुलिन्द देशोत्पन्न स्त्री, पक्कणीपक्कणदेशोत्पन्न स्त्री, बहली-बहलदेशोत्पन्न स्त्री, मुरुण्डी-मुरुण्डदेशोत्पन्न स्त्री, शवरी-शबरदेशोत्पन्न स्त्री, पारसी - फारस-(ईरानदेशोत्पन्न स्त्री), इत्यादि नानादेशोत्पन्न तथा विदेशों के परिमण्डनों (अलंकारों) से युक्त, इंगित (नयनादि की चेष्टाविशेष ) चिन्तित (मन से विचारित ) ओर प्रार्थित -अभिलषित का वि. ज्ञान रखने वाली, अपने अपने देश का नेपथ्य (परिधान आदि की रचना) और वेष पहरावा) धारण करने वाली निपुण स्त्रियों के मध्य में भी अत्यन्त कौशल्य को धारण करने वाली और विनम्र स्त्रियों से युक्त, चेटिकासमूह-दासीसमूह, वर्षधर-नपुसकविशेष, क चुकी-अन्त:पुर का प्रतिहारी, महत्तरक- अन्तपुर के कार्यों का चिन्तन करने वाला. इन सब के समूह से परिक्षिप्त-घिरा हुअा, हाथों हाथ ग्रहण किया जाता हुश्रा, एक गोद से दूसरी गोद का परिभोग करता हुआ, बालोचित गीतविशेषों द्वारा जिस का गान किया जा रहा है, जिस को चलाया जा रहा है, कीड़ा आदि के द्वारा जिस से लाड़ किया जा रहा है, एवं जो रमणीय मणियों से खचित फर्श पर चंक्रमण करता है अर्थात् बार २ इधर उधर जिसे घुयाया जा रहा है ऐसा वह बालक। प्रस्तुतसूत्र में उज्झितक कुमार की जन्म तथा बाल्य कालीन जीवन-चर्या का वर्णन किया गया है अब अग्रिम सूत्र में उस की आगे की जीवनचर्या का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च चउविहं भण्डगं गेहाय लवणसमुद्दपोयवहणेणं उवागते । तते णं से विजय मित्ते तत्थ लवणसमुह पोतविवत्तिए २णिव्वुड्डभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुचे । तते णं से विजयमित्तं सत्थवाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-माडंविय-कोडविय (१) छाया-ततः स विजयमित्र: सार्थवाहः अन्यदा कदाचित् गण्यं च धार्य च मेयं च परिच्छेद्य च चतुर्विधं भाण्डं गृहीत्वा लवणसमुद्र पोतवहनेनोपागतः । ततः स विजयमित्रस्तत्र लवणसमुद्र पोतविपत्तिको निमम-भांडसारोऽत्राणोऽशरणः कालधर्मेण संयुक्तः , ततस्तं विजयमित्र सार्थवाहं ये यथा बहवे ईश्वर - तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य-श्रेष्ठिसार्थवाहा: लवणसमुद्रे पोतविपत्तिकं निमम - भांडसारं कालधर्मेण संयुक्तं एवंति, ते तथा हस्तनिक्षेपं च बाह्यभांडसारं च गृहीत्वा एकान्तमपक्रामन्ति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही विजयमित्र स.र्थवाहं लवणसमुद्रे पोतविपत्तिकं निमनभांडसार कालधर्मेण संयुक्तं शृणोति श्रुत्वा महता पतिशोकेनापूर्णा सती परशुनिकृत्येव चम्पकलता धसेति धरणितले सर्वांगैः सन्निपतिता । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मुहूर्तान्तरेण आश्वस्ता सती बहुभिर्मित्र. यावत् परिवृता रुदती' क्रन्दन्ती विलपन्ती विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही अन्यदा कदाचित् लवणसमुद्रावतरणं च लक्ष्मी-विनाशं च पोतविनाशं च पतिमरणं च अनुचिन्तयन्ती कालधर्मेण संयुक्ता। (२) निमग्न-भाण्डसारः, निमग्नानि जलान्तर्गतानि भाण्डानि पण्यानि तान्येव साराणिधनानि यस्य स तथेति भावः। (१) रुदतो अणि मुचन्ती, क्रन्दन्ती-श्राक्रन्दं महाध्वनि कुर्वाना, विलपन्ती-आर्तस्वरं कुर्वतीति भावः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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