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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संशोधकीय विज्ञप्ति जैनवाङ्मय में कर्मवाद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, और उस ने उस के बहुत बड़े भाग को अपना विषय बना रखा है। श्री भगवती सूत्र, श्री प्रज्ञापना सूत्र और श्री उत्तराध्ययन आदि आगमग्रंथों में कर्मसम्बन्धी गम्भीर तथा विस्तृत विवेचन किया गया है। इस के अतिरिक्त बहुत से ऐसे आगमेतर ग्रंथ भी उपलब्ध हैं, जिन में मात्र कर्मों के सम्बन्ध में ही सूक्ष्म से सूक्ष्म मीमांसा की गई है । उन में "-कर्मप्रकृति और सात हजार श्लोकप्रमाण इस की ( कर्मप्रकृति की ) चूर्णी, आठ हजार और तेरह हज़ार श्लोकप्रमाण वाली इस की दो वृत्तियां, नौ हजार श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति तथा १८८५० श्लोकप्रमाण वृहद्वत्तिसहित पञ्च संग्रह, 'छह कर्मग्रन्थ बालावबोध' इस एक ही नाम वाले तीन ग्रन्थों की तीन भिन्न २ आचार्यों द्वारा रचनाएं की गई है, जिन की श्लोकसंख्या क्रमशः दस हजार, बारह हज़ार और सतरह हज़ार है । बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण टीकासहित 'महाकम प्राभूतपटखण्डागम' और चौरासी हजार श्लोकप्रमाण चूर्णीव्याख्यासमन्वित कपायप्राभृत-" आदि कर्मविषयक रचना अधिक प्रसिद्ध हैं। इन उपरोत विशालकाय आगभेतर ग्रन्थों में भी कर्मतत्त्व की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्चा की गई है। अधिक क्या कहा जाए जैनकथानक के अधिकांश भाग में भी कमविषयक वर्णन ही उपलब्ध हो रहा है। प्रस्तुत श्री विपाकसूत्र की रचना भी कर्मतत्व को बतलाने के उद्देश्य से ही की गई है। यह तथ्य इस सूत्र के नाम और प्रतिपाद्य विषय से सहज ही अवगत किया जा सकता है। कर्मतत्त्व जैसे दुरूह विषय को जनसाधारण भी सुगमता से समझ सके, इस उद्देश्य से इस सूत्र में सरल कथानकपद्धति अपनाई गई है । - जैनसाहित्य में कर्मवाद को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है, यह कथन उपरोक्त आगमों और भागमभिन्न ग्रंथों के पर्यालोचन से स्वतः ही प्रमाणित हो जाता है। कर्मतत्व को जाने बिना जैनसिद्धान्त का यथार्थ अथच परिपूर्ण बोध नहीं हो सकता, यही कारण है कि जैनसिद्धान्त में दार्शनिक और कथानक पद्धति के द्वारा कर्मवाद से सम्बन्ध रखने वाले महत्वपूर्ण साहित्य का सर्जन किया गया है। प्रकृत श्री विपाकसूत्र के दो श्रुतस्कन्ध है। प्रथम का नाम है-दुःखविपाक और द्वितीय का नाम है-सुखविपाक । अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, निर्दयता, चौर्थवृत्ति, कामवासना और परिग्रह के द्वारा प्राणी कैसे २ घोर कर्मों का बन्ध कर लेते हैं, तथा कर्मबन्ध के अनुरूप कैसे २ भीषण एवं रोमाञ्चकारी फलों का उपभोग करते हैं, इस प्रकार का वर्णन प्रथम श्रुतस्कन्ध में किया गया है । दाता, पात्र, द्रव्य और विधि आदि की विशेषताओं से युक्त दान करने से प्राणी नाना प्रकार के सुखों का परिभोग करते हुए अन्त में सम्यग दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा सिद्धगति ( मोक्ष ) को प्राप्त करते हैं, इत्यादि विपय का द्वितीय श्रुस्तकन्ध में प्रतिपादन किया गया है । इस विपाकसूत्र के अनुवादक पण्डित मुनि श्री ज्ञानचन्द्र जी हैं । मुनि श्री जी ने इस For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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