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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [१२९ “ – उप्पीलिय सरासरणपट्टिए - उत्पीडित- शरासन - पट्टिकान्, उत्पीडिता कृतप्रत्यचारोपणा शरासनपट्टिका - धनुर्यष्टिबहुपट्टिका वा यैस्ते तथा तान् - " अर्थात् उन पुरुषों ने धनुष की यष्टियों पर डोरियें लगा रखीं हैं अथ च शरासनपट्टिका - धनुष खैंचने के समय भुजा की रक्षा के लिये बान्धी जाने वाली चमड़े की पट्टी को उन पुरुषों ने बान्ध रखा है । शरासनपट्टिका पद की " - शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासनम्, इषुधिस्तस्य पट्टिका शरासनपट्टिका - " यह व्याख्या करने पर इस का तूणीर (तरकश ) यह अर्थ होगा अर्थात् उन पुरुषों ने तूणीर को धारण किया हुआ है । “ – पिण्द्धगेविज्जे " पिनद्धयैवेयकान् पिनद्धं परिहितं ग्रैवेयकं यैस्ते तथा तान् - " अर्थात् उन पुरुषों ने ग्रैवेयक – कण्ठाभूषण धारण किए हुए हैं । " " विमलवरबद्धचिंधपट्टे - " विमलवरबद्ध चिन्हपट्टान् विमलो वरो बद्धश्चिन्हपट्टो-नेत्रादियो यस्ते तथा तान् - " अर्थात् उन पुरुषों ने निर्मल और उत्तम चिन्ह-पट्ट बान्धे हुए हैं। सैनिकों की पहचान तथा अधिकारविशेष की सूचना देने वाले कपड़े के बिल्ले चिन्हपट कहलाते हैं । शस्त्र-अस्त्र आदि से सुसज्जित उन पुरुषों के मध्य में भगवान् गौतम स्वामी ने एक पुरुष को देखा । उस पुरुष का परिचय कराने के लिये सूत्रकार ने उस के लिये जो विशेषण दिए हैं, उनकी व्याख्या निम्न प्रकार से है " - श्रवश्रो डगबन्धणं - अवकोटकबन्धनं, रज्ज्वागलं हस्तद्वयं च मोटयित्वा पृष्ठभागे हस्तद्वयस्य बन्धनं यस्य स तथा तम् - " अर्थात् गल और दोनों हाथों को मोड़ कर पृष्ठभाग पर रज्जू के साथ उस पुरुष के दोनों हाथ बान्धे हुए हैं । इस बन्धन का उद्द ेश्य है – वथ्य व्यक्ति अधिकाधिक पीड़ित हो और वह भागने न पाए । -" उक्कित्तकराणनासं - उत्कृत्तकर्णनासम्, अर्थात् उस पुरुष के कान और नाक दोनों ही कटे हुए हैं। अपराधी के कान और नाक को काटने का अभिप्राय उसे अत्यधिक अपमानित एवं विडम्बित करने से होता है । " - नेहतुप्पियगत – स्नेहस्नेहितगात्रम्, अर्थात् उस पुरुष के शरीर को बृत से स्निग्ध किया हुआ है । वध्य के शरीर को घृत से स्नेहित करने का पहले समय में क्या उद्देश्य होता था ? इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव मौन हैं। तथापि शरीर को घृत से स्निग्ध करने का अभिप्राय उसे कोमल बना और उस पर प्रहार करके उस वध्य को अधिकाधिक पीडित करना ही संभव हो सकता है । “ – वज्झ-करक डिजुयनियत्थं - वध्य - करकटि - युग - निवसितम्, वध्यश्चासौ करयो: - हस्तयोः कटयां कटीदेशे युगं - युग्मं निवसित एव निवसितश्चेति समासोऽतस्तम् अथवा वध्यस्य यत्करटिकायुगं - निन्द्यचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा तम् – " अर्थात् उस मनुष्य के हाथों और कमर में वस्त्रों का जोड़ा पहनाया हुआ था । अथवा - मृत्युदण्ड से दण्डित व्यक्ति को फांसी पर लटकाने के समय दो निन्द्य ( घृणास्पद वस्त्र पहनाए जाते हैं, उन निन्दनीय वस्त्रों को करकटि संज्ञा है । उस वध्य व्यक्ति को निन्दनीय वस्त्रों का जोड़ा पहना रखा है । तात्पर्य यह है कि प्राचीन समय में ऐसी प्रथा थी कि वध्य पुरुष को अमुक वस्त्रयुगम ( दो वस्त्र ) पहनाया जाता था । उस वस्त्रयुगम को धारण करने वाला मनुष्य वध्य-कर-कटि- युग-निवसित कहलाता था । ...."ब्रज्झ कर - कडि - जय - नियत्थं - " इस पद का अर्थ अन्य प्रकार से भी किया जा सकता हैं, जो कि निम्नोत है For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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