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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । जक्खस्स- यक्ष का । जक्वायतणे-यक्षायंतन । हास्था-था। तत्थ णं वाणियग्गामे-उस वाणिजग्राम नामक नगर में । मित्त -- मित्र । णाम-नाम का। राया होत्था--राजा था । वराणो -वर्णक - वर्णन प्रकरण पूर्ववत् जानना । तस्स णं-उस । मित्तस्स रराणो--मित्र गजा की। सिरी णाम-श्री नाम की। देवी- देवी-पटराणी । हात्या-थी। वो -वर्णक पूर्ववत् जानना । तत्थ णं वाणियग्गामे- उस वाणिज ग्राम नगर में । अहीण- सम्पूर्ण पंचे न्द्रयों से युक्त शरीर वाली। जाव-यावत् । सुरुवा-- परम सुन्दरी। बावत्तरीकलापंडिया-७२ कलाओं में प्रवीण । च उसटिगणिया-गुणोववेया-६४ गणिका. गुणों से युक्त । एगणतीसविसेसे २९विशेषों में । रममाणी- रमण करने वाली । एक्कवीसरतिगुगप्पहाणा -२१ प्रकार के रति गुणों में प्रधान । बत्तीसपुरिसोवयारकुसला काम - शस्त्र प्रसिद्ध पुरुष के ३२ उपचारों में कुशल । णवंगसत्तपडिबोहिया --सुप्त नव अंगों से जागृत अर्थात् जिस के नौ अग दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक रसना-जिव्हा, एक त्वक त्वचा और मन, ये नव जागे हुए हैं । अट्ठारसदेसीभासाविसारया- अठारह देशों की अर्थात् अठारह प्रकार की भाषा में प्रवीण । सिंगारागारचारुवेसा-शृङ्गार प्रधान वेघ युक्त, जिसका सुन्दर वेष मानों शृङ्गार का घर ही हो, ऐसी। गीयरतिगं. धन्वनकुसला - गीत (संगीतविद्या, रति (कामकीड़ा) गान्धर्व (नृत्ययुक्त गीत), और नाट्य (नृत्य) में कुशल। संगतगत०-मनोहर गत-गमन आदि से युक्त । सुंदरत्थण-कुचादि गत सौन्दर्य से युक्त । सहस्सलंभा-गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र (हज़ार) का लाभ लेने वाली अर्थात् नृत्यादि के उपलक्ष्य में हज़ार मुद्रा लिया करती थी। ऊसियज्झया-जिसके विलास भवन पर ध्वजा फहराती रहती थी। विदिएणछत्तचामरबालवियाणिया-जिसे राजा की कृपा से छत्र तथा चमर एव बालव्यजनिका संप्राप्त थी । वावि-तथा। करणीरहप्पया या -कर्णीरथ नामक रथविशेष से गमन करने वाली । कामज्झया णामं (१) -जाव यावत्-" पद से " -- अहीण-पडिपुराण-पंचिंदिय-सरीरा, लक्षण-वंजण-गुणोववेया, मागुम्माणप्पमाण-पडिपुराण सुजाय-सव्वंगसुदरंगी, ससिसोमाकारा, कंता, पियदसणा, सुरुवा-इन पदों का ग्रहण करना । इन का अर्थ निम्नोक्त है____ लक्षण की अपेक्षा अहीन (समस्त लक्षणों से युक्त), स्वरूप की अपेक्षा परिपूर्ण (न अधिक ह्रस्व और न अधिक दीर्घ, न अधिक पीन और न अधिक कृश ) अर्थात् अपने २ प्रमाण से विशिष्ट पांचों इन्द्रियोंसे उस का शरीर सुशोभित था । हस्त की रेखा आदि चिन्ह रूप जो स्वस्तिक आदि होते हैं उन्हें लक्षण कहते हैं । मसा, तिल आदि जो शरीर में हुया करते हैं, वे व्यञ्जन कहलाते हैं इन दोनों प्रकार के चिन्हों से यह गणिका सम्पन्न थी । जल से भरे कुण्ड में मनुष्य के प्रविष्ट होने पर जब उससे द्रोण (१३ या ३२ सेर) परिमित जल बाहिर निकलता है तब वह पुरुष मान वाला कहलाता है, यह मान शरीर की अवगहनाविशेष के रूप में ही प्रस्तुत प्रकरण में संगृहीत हुआ है । तराजू पर चढ़ा कर तोलने पर जो अर्धभार ( परिमाण विशेष ) प्रमाण होता है वह उन्मान है, अपनी अगुलियों द्वारा एक सौ पाठ अंगुलि परिमित जो ऊचाई होती है वह प्रमाण है, अर्थात् उस गणिका के मस्तक से लेकर पैर तक के समस्त अवयव मान, उन्मान, एवं प्रमाण से युक्त थे, तथा जिन अवयवों की जैसी सुन्दर रचना होनी चाहिये, वैसी ही उत्तम रचना से वे सम्पन्न थे । किसी भी अंग की रचना न्यूनाधिक नहीं थी । इसलिये उस का शरीर सर्वांगसुन्दर था । उस का आकार चन्द्र के समान सौम्य था। वह मन को हरण करने वाली होने से कमनीय थी । उस का दर्शन भी अन्तःकरण को हर्षजनक था इसी लिये उस का रूप विशिष्ट शोभा से युक्त था । .. (२) कीरथप्रयाताऽपि, कीरथः प्रवहणविशेषः तेन -प्रयातं गमनं यस्याः सा। कर्णीरथो हि केषाञ्चिदेव ऋद्धिमतां भवति सोऽपि तस्या अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपि शब्दः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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