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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ९८] श्री विपाक सूत्र - [ प्रथम अध्याय पुर नगर के श्रेष्ठ कुल में पुत्र रूप से का पालक तथा ब्रह्मचारी होगा, और और प्रतिक्रमण द्वारा समाधिस्थ होता उत्पन्न होने वाला यह मृगापुत्र का जीव दीक्षित हो कर ईर्यासमिति वहां पर अनेक वर्षों तक संयम व्रत को पाल कर आलोचना हुआ समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा । इस कथन से विकासगामी अर्थात् विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करने वाला आत्मा एक न एक दिन अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त करने में सफल हो ही जाता है । यह भली भांति सूचित हो जाता है । "इरियासमिते जाव बंभयारी" इस में उल्लिखित 'जाव यावत्" पद से - "ईरियासमिया, भासासमिया, एसणासमिया, श्रयाणभंडमत्त - निक्खेवणासमिया, उच्चारपासवण - खेल सिंघाणजल्लपा रिट्ठाव गियास मिया, मणस मिया, वयसमिया कायसमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कार्यगुत्ता, गुत्ता, गुसिंदिया, गुत्तबंभयारी" ( ईर्यासमिता:, भाषासमिताः, एषणासमिताः, श्रदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासभिताः, उच्चार – प्रश्रवण - खेल सिंघाणजल्ल - परिष्ठाप निकास मिताः, मनः समिताः, वचः समिताः, कायसमिताः, मनोगुप्ता, वचोगुप्ताः, कायगुप्ताः, गुप्ताः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिणः ] इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना । " लोइयपड़िक्कते - आलोचितप्रतिक्रान्तः " - अर्थात् श्रात्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित करके उन की आज्ञानुसार दोषों से दूर हटने वाले अर्थात् प्रायश्चित करने वाले को आलोचित - प्रतिकान्त कहते हैं । आलोचना - गुरुजनों के श्रादेशानुसार पाप निवृत्ति के लिये प्रायश्चित करना । प्रतिक्रमण - - प्रमाद वश शुभयोग से गिर कर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद शुभ योग को प्राप्त करना अर्थात् अशुभ व्यापार से निवृत्त हो कर शुभ योगों में प्रवृत्ति करना प्रतिक्रमण है दूसरे शब्दों में- सावद्य प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़े थे उतने ही पीछे हट जाना तथा निरवद्य प्रवृत्ति में सावधान हो जाना अथवा साधु तथा गृहस्थों द्वारा प्रातः सायं करणीय एक अत्यावश्यक अनुष्ठान को प्रतिक्रमण कहते हैं । आलोचना और प्रतिक्रमण की फलश्रुति का उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र [ श्रध्याय २९] में इस प्रकार है प्रश्न - हे भदन्त ! आलोचना से जीव किस गण को प्राप्त करता है ? उमर - आलोचना से यह जीव मोक्षमार्ग के विघातक, अनन्तसंसार को बढ़ाने वाले, माया, निदान और मिथ्यादर्शनरूप शल्यों को दूर करदेता है तथा ऋजुभाव सरलता की प्राप्त करता है। ऋजुभाव प्राप्त करके माया से रहित होता हुआ यह जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं बान्धता और पूर्व में बन्धे निर्जरा कर देता हैं । हुए की (१) प्रतीपंक्रमण प्रतिक्रमणं, एतदुक्त भवति - शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनमिति । उक्तांच - " स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ क्षयोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥||२|| (२) आलोयगाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ १ आलोयणाएणं मायानियाणमिच्छादंसरण सल्लागं मोक्खमग्गविग्वाणं अणत - संसार - बंधणाणं उद्धरणं करेइ । उज्जुभावं च जणयइ | उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे श्रमाई इत्थीवेय-नपुरंसग - वेयं च न बंधइ । पुव्वबद्ध च णं निज्जरेड || ५॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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