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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय जोकि मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं, दुःख-विपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जिस प्रकार मैंने प्रभु से सुना है उसी प्रकार मैं तुम से कहता हूं । ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ टीका ---- कर्म के वशीभूत होता हुआ यह जीव ससार-चक्र में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करता हुअा किन किन विकट परि स्थतियों में से गुजरता है और अन्त में किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से मनुष्य भव में आकर धर्म की प्राप्ति होने से उसका उद्धार होता है, इन सब विचारणीय बातों का परिज्ञान मगापत्र के अगामी भवों के इस वर्णन से भली भांति प्राप्त हो जाता है। इस वर्णन में मुमन जीवों के लिये अात्मसुधार की पर्याप्त सामग्री है अत: विचारशील पुरुषों को इस वर्णन से पर्याप्त लाभ उठाने का यत्न करना चाहिये अस्तु सूत्रकार के भाव को मूलार्थ में प्रायः स्पष्ट कर दिया गया है । परन्तु कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्द है जिन की व्याख्या अभी अवशिष्ट है अतः उन शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जाती है वंता व्यपर्वत - भरत क्षेत्र के मध्य भाग में वैतान्य नाम का एक पर्वत है । जो कि २५ योजन ऊंचा अोर ५० योजन चौड़ा है । उस के ऊपर नव कूट हैं जिनपर दक्षिण और उत्तर में विद्याधरों की श्रेणियां हैं, उन में विद्याधरों के नगर हैं, और दो आभियोगिक देवों की श्रेणियां हैं, उन में देवों के निवास स्थान हैं। उसके मूल में दो गुफायें हैं । एक तिमिस्रा दूसरी खण्डप्रपात गुफा है। वे दोनों बन्द रहती हैं। जब कोई चक्रवर्ती दिगविजय करने के लिये निकलता है तब दण्डरत्न से उन का द्वार खोलकर क किणीरत्न से मांडला लिखकर अर्थात् प्रकाश कर अपनी सेना सहित उस गुफा में से उत्तर भारत में जाता है । इन गफानों में दो नदियां आती हैं एक उम्मगजला, दूसरी निम्मग -- जला । वे दोनों तीन तीन योजन चौड़ी हैं । चल्लहिमवन्त नामक पर्वत के ऊपर से निकली हुई गंगा और सिंधु नामक नदियां भी इन गुफाओं में से दक्षिण भारत में प्रवेश करती हैं । नरक-भमिएं शास्त्रों में सात नरक-भूमिएं (नरक-भूमि वह स्थान है जहां मरने के बाद जीवों को जीवित अवस्था में किये गये पापों का फल भोगना पड़ता है) कही हैं । उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं – (१) त्निप्रभा (२) शकराप्रभा (३) वालुकाप्रभा (४) पंकप्रभा (५) धूमप्रभा (६) तमःप्रभा और (७) महातमःप्रभा '। इन नरकों या नरक --- भूमियों में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश: एक, तीन, सात दस, सत्रह, वाईस और तेतीस सागरोपम की है । इन में रत्न प्रभा नामकी पहली नरक भृमी के तीन काण्ड-हिस्से हैं, और उममें उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की बतलाई गई है और अन्त की सातवीं नरक की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण तेतीस सागरोपम है। सागरोपम-यह जैनसाहित्य का कालपरिमाण सूचक पारिभाषिक शब्द है। जन तथा बोद्ध वाङमय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पल्योपम तथा सागरोपम आदि शब्दों का उल्लेख देखने में नहीं आता। (१) रत्न-राकरा-वालुका-पंकधूम-तमो-महातमःप्रभा भूमयो । घनाम्बुवाताकाराप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः ॥१॥ अर्थात् रत्नप्रभा, शकराप्रभा, वालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा तमःप्रभा, और महातम:प्रभा ये स.त भूमिये हैं, जो धनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं, एक दूसरी के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक अधिक विस्तीर्ण है। (२) इन सातों नरकों की स्थिति का वर्णन निम्नोक्त है--- "तेष्वेकत्रिसप्तद द्वाविंशति-त्रयोविंशत्-सागरोपमाः सत्वानां परा स्थितिः” अर्थात् उन नरों में रहने वाले प्राणियों की उत्कृष्ट स्थिति कम से एक, तीन, सात; देश, सत्रह, बाईस और तेतीस सागरोपम प्रमाण है। नरकाम For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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