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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय } हिन्ही भाषा टीका सहित। के अनुसार संसार में अनेक ऐसे गुणी पुरुष होते हैं जो कि पर्याप्त गुणसम्पत्ति के स्वामी होते हुए भी अप्रसिद्ध रहते हैं, और बिना बुलाये कहीं जाते नहीं। ऐसे गुणी पुरुषों से लाभ उठाने का भी यही उपाय है जिसका उपयोग एकादि राष्ट्रकूट ने किया अर्थात् घोषणा करादी । सांसारिक परिस्थिति में अथ का प्रलोभन अधिक व्यापक और प्रभत्व शाली है । १“अर्थस्य पुरुषोदासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित्" इस नीति-वचन को सन्मुख रखते हुए नीतिकुशल एकांदि ने गुणिजनों के आकरणार्थ अर्थ का प्रलोभन देने में भी कोई त्रुटि नहीं रक्खी, अपने अनुचरों द्वारा यहां तक कहलवादिया कि अगर कोई वैद्य या चिकित्सक प्रभृति गुणी पुरुष, उसके १६ रोगों में से एक रोग को भी शान्त कर देगा तो उसे भी वह पर्याप्त धन देगा, इस से यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि समस्त रोगों को उपशान्त करने वाला कितना लाभ प्राप्त कर सकता है । अर्थात् उप के लाभ की तो कोई सीमा नहीं रहती। दो या तीन बार बड़े ऊचे स्वर से घोषणा करने का आदेश देने का प्रयोजन मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि इस विज्ञप्ति से कोई अज्ञात न रह जाय । एतदर्थ ही उद्घोषणा स्थानों के निर्देश में शृङ्गाटक, त्रिपथ, चतुष्पथ और महापथ एवं साधारणपथ आदि का उल्लेख किया गया है । शृङ्गाटक-त्रिकोण मार्ग को कहते हैं । त्रिक-जहां पर तीन रास्ते मिलते हों । चतुष्क - चतुष्पथ, चार मार्गों के एकत्र होने के स्थान का नाम है जिसे आम भाषा में "चौक'' कहते हैं । चत्वर--चारमार्गों से अधिक मार्ग जहां पर संमिलित होते हों उसकी चत्वर संज्ञा है। महापथ-राजमार्ग का नाम है, जहां कि मनुष्य समुदाय का अधिक संख्या में गमनागमन हो । पथ सामान्य मार्ग को कहते हैं । प्रस्तुत सूत्र में वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक, ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इन के अर्थ-विभेद की कल्पना करते हुए वृत्तिकार के कथनानुसार जो वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा दोनों में निपुण हो वह वैद्य, और जो केवल शास्त्रों में कुशल हो वह ज्ञायक तथा जो मात्र चिकित्सा में प्रवीण हो वह चिकित्सक कहा जाता है। यहां पर एक बात विचारणीय प्रतीत होती है, वह यह कि "वेजो वा बोजपुत्तो वा-" इत्यादि पाठ में वैद्य के साथ. वैद्य-पत्र का, ज्ञायक के साथ ज्ञायक-पत्र का एवं चिकित्सक के साथ चिकित्सक-पुत्र का उल्लेख करने का सूत्रकार का क्या अभिप्राय है ? तात्पर्य यह है के वैद्य और वैद्यपुत्र में क्या अन्तर है, जिसके लिये उसका पृथक २ प्रयोग किया गया है । वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने भी इस पर कोई प्रकाश नहीं डाला। "वैद्य पुत्र" का सीधा और स्पष्ट अर्थ है – वैद्य का पुत्र-वैद्य का लड़का । इसीप्रकार ज्ञायकपुत्र और चिकित्सकपुत्र का भी, ज्ञायक का पुत्र चिकित्सिक को पुत्र-बेटा यही प्रसिद्ध अर्थ है । एवं यद वैद्य का वैद्य पुत्र है ज्ञायक का पुत्र ज्ञायक और चिकित्सक का पुत्र भी चिकित्सक है तब तो वह वैद्य ज्ञायक एवं चिकित्सक के नाम से हो सुगृहीत हैं, फिर इस का पृथक निर्देश क्यों ? अगर उस में -- वैद्यपुत्र में (१) यह सम्पूर्ण वचन इस प्रकार है - अर्थस्य पुरुषो दासो, दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज ! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरौः ॥१॥ कहते हैं कि दुर्योधनादि कौरवों का साथ देते हुए एक समय महारथी भीष्म पितामह से युधिष्ठर प्रभृति किसी संभावित व्यक्ति ने पूछा कि आप अन्यायी कौरवों का साथ क्यों दे रहे हो ? इसके उत्तर में उन्हों ने कहा कि संसार में पुरुष तो अर्थ का दास-धन का गुलाम है परन्तु अर्थ-धन किसी का भी दास-गुलाम नहीं, यह बात अधिकांश सत्य है, इसलिये महाराज ! कौरवों के अर्थ ने-धन प्रलोभन ने मुझे बान्ध रक्खा है । (२) "वेज्जो व" त्ति वैद्यशास्त्रे चिकित्सायां च कुशलः । “वेज्जपुत्तो व' त्ति तत्पुत्रः “जाणुप्रो व" त्ति ज्ञायक: केवल-शास्त्रकुशलः। "तेगिच्छिनोव', त्ति चिकित्सामात्रकुशलः। [अभयदेवसूरिः] For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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