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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [४९ दुश्चीर्ण [ दुष्टना से किये गये ] दुष्प्रतिक्रान्त [जिन के विनाश का कोई उपाय नहीं किया गया | और अशुभ पाप कमों के पाप रूप फल को पा रहा है । नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे । यह पुरुषमृगापुत्र नरक के समान वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है । इन विचारों से प्रभावित होते हुए भगवान् गौतम ने मृगादेवी से पूछ कर अर्थात् अब मैं जा रहा हूँ, ऐसा उसे सूचित कर उस के घर से प्रस्थान किया -वहां से वे चल दिये । नगर के मध्यमार्ग से चल कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर पहुँच गये, पहुंच कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की दाहिनी तर्फ से प्रदक्षिणा कर के उन्हें वन्दना तथा नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर वे भगवान् से इस प्रकार बोले भगवन् ! आप श्री की आज्ञा प्राप्त कर मैंने मृगाग्राम नगर में प्रवेश किया, तदनन्तर जहां मृगादेवी का घर था मैं वहाँ पहुँच गया। मुझे देखकर मृगादेवी को बड़ी प्रसन्नता हुई, यावत् पूय-पीब शोणित-रक्त का आहार करते हुए मृगापुत्र की दशा को देख कर मेरे चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ कि-अहह ! यह बालक महापापरूप कर्मा के फल को भोगता हुअा कितना निकृष्ट जीवन बिता रहा है । टोका - भोजन का समय हो चुका है, मृगापुत्र भू व से व्याकुन हो रहा होगा, जन्दो करूं, उस के लिये भोजन पहुंचाऊँ, साथ में भगवान् गौतम भी उसे देख लेंगे, इस तरह से दोनों ही कार्य मध जायेंगे इन विचारों से प्रेरित हुई महाराणी मृगादेवी ने जब पर्याप्त मात्रा में अशन (रोटी, दाल आदि) पान ( पानी आदि पेय पदार्थ) आदि चारों प्रकार का आहार एक काठ की गाड़ी में भर कर मृगापुत्र के निवास स्थान भौरे) पर पहुँचा दिया, तब भोजन की मधुर गन्ध से श्राकृष्ट (खिचा हुअा ) मृगापुत्र उम में मूछित (आसक्त) होता हुआ मुख द्वारा उस को ग्रहण करने लगा, खाने लगा, भूख से व्याकुल मानस को शान्त करने लगा। कर्मों का प्रकोप देखिए -- जो भोजन शरीर के पोषण का कारण बनता है, स्वास्थ्यवर्धक होता है, वही भोजन कर्म-डोन मृगापुत्र के शरीर में बड़ा विकराल एवं मानस को कम्पित करने वाला कट परिग म उत्पन्न कर देता है । मृगापुत्र ने भोजन किया ही था कि जठराग्नि के द्वारा उस के पच जाने पर वह तत्काल ही पाक और रक्त के रूप में परेणत हो गया। दुष्कर्मा के प्रकोप को मानो इतने में सन्तोष नहीं हश्रा. प्रत्युत वह उसे--मृगपत्र को और अधिक चिडम्बित करना चाह रहा है इसी लिये मृगापुत्र ने मानों पीब और खून का वमन किया और उस वान्त पीव एवं खून को भी वह चाटने लग गया दूसरे शब्दों में कहे तो मृगापुत्र ने जिस अाहार का सेवन किया था वह तत्काल ही पीब और रुधिर के रूप में बदल गया और साथ ही उम पाक और खून का उसने वमन किया । जैसे कुत्ता वमन को खा जाता है वैसे ही वह मृगापुत्र उस वमन (उल्टी) को खाने लग पड़ा। (१) यहां प्रश्न होता है कि मूल में कहीं ‘वमइ ऐसा पाठ नहीं है, फिर "मृगापुत्र ने पाक ओर रुधिर का वमन किया" ऐसा अर्थ किस आधार पर किया गया है ? इस का उत्तर लेने से पूर्व यह विचार लेना चाहिये कि ''वमइ” के अर्थाभाव में सूत्रार्थ संगत रहता है या नहीं। देखिए - "मृगापुत्र ने आहार ग्रहण कर लिया, शीघ्र ही उस का ध्वंस हो गया, उस के पश्चात् वह पीब और रुधिर के रूप में परिणत हो गया, एवं उस पीब तथा रुधिर को वह खाने लग पड़ा-' यह है मूलसूत्र का भावार्थ । यहां शंका होती है कि जिस भोजन को एक बार खाया जा चुका है, और जिसे जठराग्नि ने पचा डाला है एवं विभिन्न रमों में जो परिणत भी हो चका है । उस को दोबारा कैसे ग्वाया For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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