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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय कहा, जिस से श्राप ने उस गुप्त रहस्य को जाना है । टोका-भगवन् ! अन्धकरूप [ जिस के नेत्रों की उत्पत्ति भी नहीं हो पाई ] मे जन्मा हुत्रा वह पुरुष कहां है ? गोतम स्वामी ने बड़ी नम्रता से प्रभु वीर के पवित्र चरणों में निवेदन किया । गौतम ! इसी मृगाग्राम नग में मृगादेवो की कुक्षि से उत्पन्न विजयनरेश का पुत्र मृगापुत्र नाम का बालक है, जो कि अन्धकरूप में ही जन्म को प्राप्त हुआ है, अतएव जन्मांध है, तथा जिसके ‘ाथ, पैर, नाक, आंख और कान भी नहीं है, केवल उन के आकार-चिन्ह ही हैं . उस की माता मृगादेवी उसे एक गुप्त भूमिगृह में रख कर गुप्तरूप से ही खान पान पहुँचाकर उन का संरक्षण कर रही है । भगवान् ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया, जिसकी यथार्थता में किसी भी प्रकार के सन्देह को अवकारी नहीं है। "दारगरस जाव आगितिमिले" तथा "मियादेवी जाव पडिजागरमाणी" इन दोनों स्थलों में पढ़े गये “जाव-यावत्" पद से पूर्व पठित अागम-पाट का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है। "जाति-अन्धे" और "जायअन्धास्वे” इन दोनों पदों के अर्थ-विभेद पर प्रकाश डालते दुए आचार्य श्री अभयदेव सूरि जी इस प्रकार लिखते हैं "जाति-अन्धे" त्ति-जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः स च चक्षरुपघातादपि भवतीत्यत आह'जाय-अंधारूवे त्ति जातमुत्पन्नाधकं नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिताङ्गरूपं-स्वरूपं यस्यासौ जातान्धकरूपः”-तात्पर्य यह है कि “जात्यन्धा और “जातान्धकरूप" इन दोनों पदों में प्रथम पद से तो जन्मान्ध अर्थात् जन्म से लेकर होने वाला अन्धा यह अर्थ विवक्षित है, और दूसरे से यह अर्थ अभिप्रेत है कि जो किसी बाह्यनिमित्त से अन्धा न हुआ हो किन्तु प्रारम्भ से ही जिसके नेत्रों की निष्पत्ति-उत्पत्ति नहीं हो पाई उत्तर- ऐसी बात नहीं है, भगवान् गौतम ने जब भी भगवान् महावीर से कोई पृच्छा की है तो उस में मात्र जनहित की भावना ही प्रधान रही है उन के प्रश्न सर्वजनहिताय एवं सुखाय ही होते थे अन्यथा उपयोग लगाने पर स्वयं जान सकने की शक्ति के धनी होते हुए भी वे भगवान् से ही क्यों पूछते हैं ? उत्तर स्पष्ट है, भगवान् से पूछने में उन का यही हार्द है कि दूसरे लोग भी प्रभु-वाणी का लाभ ले लेंअन्य भावुक व्यक्ति भी जीवन को समुज्ज्वल बनाने में अग्रेसर हो सके, सारांश यह है कि भगवान् की वाणी से सर्वतोमुखी लाभ लेने का उदेश्य ही अनगार गौतम की पृच्छा में प्रधानतया कारण हुअा रहा है। प्रस्तुत प्रकरण में भी उसी सद्भावना का परिचय मिल रहा है । यदि अनगार गौतम मृगापुत्र को देखने न जाते तो अधिक संभव था कि मृगापुत्र के अतीत और अनागत जीवन का इतना विशिष्ट ऊहापोह (सोच विचार) न हो पाता और नाहीं मृगापुत्र का जीवन आज के पापी मानव के लिये पापनिवृत्ति में सहायक बनता । यह इसी पृच्छा का फल है कि आज भी यह मृगापुत्र का जीवन मानवदेहधारी दानव को अशुभ कर्मों के भीषण परिणाम दिखाकर उन से निवृत्त करा कर मानव बनाने में निमित्त बन रहा है, एवं इसी पृच्छा के बल पर प्रस्तुत जीवन की विचित्र घटनात्रों से प्रभावित होकर अनेकानेक नर नारियो ने अपने अन्धकार- पूर्ण भविष्य को समुज्ज्वल बना कर मोक्ष पथ प्राप्त किया है और भविष्य में करते रहेंगे। भगवान् गौतम की किसी भी पृच्छा में अविश्वास को कोई स्थान नहीं। वे तो प्रभु वीर के परम श्रद्धालु, परम सुविनीत, आज्ञाकारी शिष्यरत्न थे। उन में अविश्वास का ध्यान भी करना उन को समझने में भूल करना है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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