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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [३१ चन्दनपादप उद्यान में पहुंचा और श्रम ग भगवान महावीर स्वामो के चरणों में उपस्थित हो कर उन्हें सविधि वन्दना नमस्कार कर के उचित स्थान पर बैठ गया।। किसी भी मानवी व्यक्ति के जीवन की कीमत उस के बाहर के प्राकार पर से नहीं की जा सकती, जीवन का मूल्य तो मानव के हृदयगत विचारों पर निर्भर रहता है। जिन का साक्षात् सम्बन्ध आत्मा से है। एक परम दरिद्र और करूप व्यक्ति के आन्तरिक भाव कितने मलिन अथवा विशुद्ध है, इस का अनुमान उस की बाहरी दशा से करना कितनी भ्रान्ति है ?, यह उस जन्मान्ध व्यक्ति के जीवन वृत्तान्त से भली भांति सुनिश्चित हो जाता है. जो कि सात्विक भाव से प्रेरित होता हुआ वीर प्रभु की सेवा में उपस्थित हो रहा है। और उन की मंगलमय वाणी का लाभ उठाने का प्रयत्न कर र तदनन्तर विजय नरेश और समस्त परिषद् के उचित स्थान पर बैठ जाने पर, धर्म प्रेमी प्रजा की मनोवृतिरूप कुमुदिनी के राकेश चन्द्रमा, धमप्राण, जनता के हृदय-कमल के सूर्य, अपनी कैवल्य विभूति से जगत को आलोकित करने वाले श्रमण भावान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्य वाणी के द्वारा विश्वकल्याण की भावना से धर्म देशना देना प्रारम्भ किया। संसार के भव्य बना देने वाली वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर तथा उसे हृदय में धारण कर अत्यधिक प्रसन्न चित्त से भगवान् को विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर उपस्थित श्रोतृवर्ग अपने २ स्थान का तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी ने उस जन्मांध व्यक्ति को देखा और उन्हों ने भगवान् से पूछा कि भगवन् ! कोई ऐसा व्यक्ति भी है जो कि २जन्मांध होने के अतिरिक्त जन्मधिरूप भी हो ? इस का उत्तर भगवान् ने दिया कि हां, गौतम ! ऐसा परुष है जो कि जन्मांध और जन्मांधरूप भी है। "सणे जाव विहरति' इस पाठ के अन्तर्गत "जाव-यावत' पद से औषपातिक सूत्र के दशव सूत्र का और संकेत किया गया है, उस में वीर भगवान के समुचित सदगुणों का बड़े मार्मिक शब्दों में वर्णन किया गया है। “तते णं एए जाव निगच्छंति पाठ के 'जाव-यावत्" पद से औपपातिक सत्र २७ वे सूत्र का ग्रहण अभीष्ट है । तथा "भगवं जाव पज्जुवासामो” में आये हए 'जाव-यावत्' पद से औपपातिक के दशवे सूत्र का ग्रहण करना, तथा "नमंसित्ता जाव पाडवासति" पाठ के "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सत्र में ३२ वें सत्र के अंतिम अंश का ग्रहणा सचिन किया गया है । इसी प्रकार से "परिसा जाव. पडिगया' पाठ में उल्लिवित "जाव-यावत" पद औषपातिक के ३५ वें सत्र का परिचायक है। तथा विजय नरेश के प्रस्थान में जो कृणिक नृप का उदाहरण दिया है उस का वर्णन प्रौपपातिक के ३६ वे सूत्र में है, इसके अतिरिक्त 'इदंभूती णा आणगारे जाव विरहति" पाठ में आये हए “जाव-यावत” पद से गौतम स्वामी के साधु जीवन का वर्णन करने वाले प्रकरण का निर्देश है, उस का उल्लेख जम्बूस्वामी के वर्णन प्रसंग में कर दिया गया है । (१) भगवान् की उस धर्मदेशनारूप सुधा का पान करने की इच्छा रखने वालों को "आपपा. तिक सूत्र" के देशनाधिकार का अवलोकन तथा मनन करने का यत्न करना चाहिये। (२) जन्मांध का अर्थ है -जो जन्मकाल से अंधा हो, नेत्र ज्योतिहीन हो, और जिस के नेत्रों की उत्पत्ति ही नहीं हो पाई, उसे जन्मांध रूप कहते हैं । दोनों में अन्तर इतना होता है कि जन्मांध के नेत्रा का मात्र प्राकार होता है, उस में देखने की शक्ति नहीं होती, जब कि जन्मांधरूप के नेत्रों का आकार भी नहीं बनने पाता, इसलिये यह अत्यधिक कुरूप एवं बीभत्स होता है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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