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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४] श्री विपाक सूत्र प्रथम अध्याय कि हे जम्बू ? जब इस अवसर्पिणी का चौथा पारा व्यतीत हो रहा था, उस समय मृगाग्राम नाम का एक नगर था. उसके बाहिर ईशान कोणा में चन्दन पादप नाम का एक बड़ा ही रमणीय उद्यान था, जोकि सवे ऋतुओं के फल पुष्पादि से सम्पन्न था । उस उद्यान में सुधर्मा नाम के यक्ष का एक पुरातन स्थान था । मृगाग्राम नगर में विजय नाम का एक राजा था । उसको पृगा देवी नाम की एक स्त्री थी ? जोकि परम सुन्दरी, भाग्यशालिनी और आदर्श प्रतिव्रता थी, उसके मृगापुत्र नाम का एक कुमार था, जो कि दुर्दैवशात् जन्म काल से ही सर्वेन्द्रियविकल और अंगोपांग से हीन केवल श्वास लेने वाला मांस का एक पिंड विशेष था । मृगापुत्र की माता मृगादेवी अपने उस बालक को एक भूमि-गृह में स्थापित कर उचित आहारादि के द्वारा उसका सरंक्षण और पाल पोषण किया करती थी। प्रस्तुत प्रागम पाठ में चार स्थान पर "वराणी -वर्णक" पद का प्रयोग उपलब्ध होता है । प्रथम का नगर के साथ, दूसरा उद्यान के साथ, तीसरा-विजय राजा और चौथा मृगादेवी के साथ । जैनागमों की वर्णन शैली का परिशीलन करते हुए पता चलता है कि उन में उद्यान, चैत्य, नगरी, सम्राट , सम्राज्ञी तथा संयमशील साधु और साध्वी आदि का किसी एक अागम में सांगोपांग वर्णन कर देने पर दूसरे स्थान में अर्थात् दूसरे ग्रामों में प्रसंगवश वर्णन की आवश्यकता को देखते हुए विस्तार भय से पूरा वर्णन न करते हुए सूत्रकार उस के लिये “वरण ओ" यह सांकेतिक शब्द रख देते हैं । उदाहरणार्थ-चम्पानगरी का सांगोपांग वर्णन औषपातिक सूत्र में किया गया है । और उसी में पूर्णभद्र नामक चैत्य का भी सविस्तर वर्णन है । विगाकत में भो चम्पा और पूर्णभद्रका उल्लेख है, यहां पर भी उन का - नगरी और चैत्य का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है, परन्तु ऐसा करने से ग्रन्थ का कलेवर-श्राकार बढ़ जाने का भय है, इसलिये यहां "वरण प्रो" पद का उल्लेख कर के औषपातिक आदि सूत्रगत वर्णन की ओर संकेत कर दिया गया है ? इसीप्रकार सर्वत्र समझलेना चाहिये । प्रस्तुत पाठ में मृगाग्राम नाम नगर का वर्णन उसी प्रकार समझना जैसा कि औपपातिक सूत्र में चम्पा नगरी का वर्णन है, अन्तर केवल इतना ही है कि जहां चम्पा के वर्णन में स्त्रीलिंग का प्रयोग किया है वहां मृगाग्राम नामक नगर में पुल्लिंग का प्रयोग कर लेना। इसी प्रकार उद्यानादि के विषय में जान लेना । विजय राजा के साथ “वराणी ' का जो प्रयोग है उस से औ. पपातिक सत्रगत राजवर्णन समझ लेना । इसी भांती मृगादेवी के विषय में “वण्णा ” पद से औपपातिक सत्रगत राज्ञी वर्णन की ओर संकेत किया गया है । महाराणी मृगादेवी ने अपने तनुज, मृगापुत्र की इस नितान्त घोरदशा में भी रक्षा करने में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रक्खी, उस श्वास लेते हुए मांस के लोथड़े को एक गुप्ठ प्रदेश में सुरक्षित रक्खा और समय पर उसे खान पान पहुँचाया तथा दुर्गन्धादि से किसी प्रकार की भी घृणा न करते हुए अपने हाथों से उसकी परिचर्या की। यह सब कुछ अकारण मातृस्नेह को ही आभारी है, इसी दृष्टि से नीतिकारों ने “पितुः शतगुणा माता गौरवणातिरिच्यते" कहा है और मातदेवो भव' इत्यादि शिक्षा वाक्यभी तभी चरितार्थ होते हैं । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गर्भावास में माता पिता के जीवित रहने तक दीक्षा न लेने का जो संकल्प किया था, उसका मातृस्नेह ही तो एक कारण था । जैनागमों में जीव के छ संस्थान (आकार) माने हैं । उन में छठा संस्थान हुण्डक है । हुण्डक का अर्थ है -- जिस शरीर के समस्त अवयव बेढब हों अर्थात् जिस में एक भी अवयव शास्त्रोक्त-प्रमाण के अनुसार न हो। मृगापुत्र हुण्डक संस्थान वाला या, इस बात की बतलाने के लिए सूत्रकार ने उसे 'हुण्ड' For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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