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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका महित। से विख्यात है। इसके दुखविपाक ओर मुवविपाक नाम के दो श्रुतस्कन्ध हैं । यहां प्रश्न होता है कि श्रुतस्कन्ध किसे कहते हैं । इस का उत्तर यह है कि विभाग -विशेष अतस्कन्ध है, अर्थात् आगम के एक मुपविभाग अथवा कतिपय अध्ययनों के समुदाय का नान श्रुतस्कन्ध है । प्रतुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध है । पहले का नाम दुःख वपाक और दूसरे का सुखविपाक है । जिसमें अगुभकमों के दुखरूप विगक. परिणामविरोध का दृष्टान्त पूर्वक वर्णन हो उसे दुःखविपाक, और जिस में शुभकर्मों के सुवरूप फल-विशेष का दृष्टान्त पूर्वक प्रतिपादन हो उसे मुखविपाक कहते हैं। भगवन् ! दु:खावपाक नामक प्रथमश्रतस्कन्ध के कितने अध्ययन है जम्बू स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधमास्वामी ने उस के दश अध्ययनों को नामनिर्देशपूर्वक कह सुनाया। उन के"(१) मृगापुत्र, (२) उज्झितक, (३) अभग्नसेन, (४) शकट (५) वृहस्पति (६) नन्दवर्धन (८) उम्बरदत्त, (८) शौरिकदन ९ देवदत्ता (१०) और अजू-"ये दश नाम है मृगापुत्रादि का सविस्तर वर्णन तो यथास्थान आगे किया जायेगा, परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना उचित प्रतोत होता है - (१) मृगापुत्र - एक राजकुमार था, यह दुष्कर्म के प्रकोप से जन्मान्ध इन्द्रियविकल बीभत्स, एवं भस्मक आदि व्याधियों से परिपीड़त था। एकादि के भव में यह एक प्रान्त का शासक था परन्तु आततायो, निर्दयी, एवं लोलुपी बन कर इसने अनेकानेक दानवीय कृत्यों से अपनी आत्मा का पतन कर डाला था, जिसके कारण इसे अनेकानेक भीषण विपत्तिए सहनी पड़ीं । श्राज का जैनसंसार इसे मृगालोढे के नाम से स्मरण करता है (२) उज्झितक-विजय मित्र नाम के सार्थवाह का पुत्र था, गोत्रासक के भव में इसने गौ, बैल, आदि पशुओं के मांसाहार एवं मदिरापान जैसे गर्हित पाप कर्मों से अपने जीवन को पतित बना लिया था, उन्हीं दुष्ट कर्मों के परिणाम में इसे दुःसह कष्टों को सहन करना पड़ा। (३) भग्नसेन --विजय चोरसेनापति का पुत्र था, निर्णय के भव में यह अण्डों का अनार्य व्यापार किया करता था, अण्डों के भक्षण में यह बड़ा रस लेता था जिस के कारण इसे नरकों में भयंकर दुःख सहन करने पड़े । (४) शकट-मार्थवाह सुभद्र का पुत्र था । परिणक के भव में यह कमाई था. मांसहारी था, देवदुर्लभ अनमोल मानवजीवन को दूषित प्रवृत्तियों में नष्ट कर इस ने अपनी जीवन नौका को दुःखसागर में डुबो दिया था। (५) वृहस्पति राजपुरोहित सोमदत्त का पुत्र था, राजपुरो हत महेश्वर दत्त के भव में यह ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्ण के हजारों जीवित बालकों के हृदयमांसपिण्डों को निकाल कर उन से हवन किया करता था, इस प्रकार के दानवो कृत्यों से इसने अपने भविष्य को अन्धकार-पूर्ण बना लिया था जिसके कारण इसे जन्म जन्मान्तर भटकना पड़ा । (६ नन्दोवर्धन मथुरानरेश श्रीदाम का पत्र था, दुर्योधन कोतबाल के भव में यह अपराधियों के साथ निर्दयता एवं पशुता पूर्ण व्यवहार किया करता था, उन के अपराधों का इसके पास कोई मापक पैमाना) नहीं था, जो इसके मन में श्राया वह इसने उन पर अत्याचार किया इसी क्र रता से इसने भीषण पापों का संग्रह किया, जिस ने इसे नारकीय दुखों से परिपीडित कर डाला (७) उम्बरदत्त - सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र था, वैद्य धन्वन्तरी के भव में यह लोगों को मांसाहार का उपदेश दिया करता था । मांस-भक्षण-प्रचार इस के जोवन का एक अंग बन चुका था। जिस के परिणामस्वरूप नारकोय दुःख भोगने के अनन्तर भी इसे पाटलिघण्ड नगर की सड़कों पर भीपण रोगों से आक्रान्त एक कोढो के रूप में धक्के खाने पड़े थे। (८) शौरिक - समुद्रदत्त नामक मछुवे (मच्छी मारने वाले) का पुत्र था, श्रीद के भव में यह राजा का रसोईया था, मांसाहार इस के जीवन का लक्ष्य बन चुका या, अनेकानेक मूक पशुओं के जीवन का अन्त करके इसने महान पाप कर्म एकत्रित किया था, यही कारल है कि नरक के असह्य दुःख को भोगने के अनन्तर भी इसे इस भव में तड़प तड़प कर मरना पड़ा For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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