SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विपाक सूत्र ―― - १६ ] यह है क्या अर्थ है ? इस प्रश्न का उत्तर इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले मति अर्थात् हम जब किसी वस्तु को किसी इन्द्रिय या मन द्वारा जानते हैं, उत्पन्न होता है। यही क्रम बतलाने के लिये शास्त्रों में चार भेद कहे गये हैं । साधारणतया प्रत्येक मनुष्य समझता है कि मन और इन्द्रिय से एकदम जल्दी ही ज्ञान हो जाता है । वह समझता है मैंने आंख खोली और पहाड़ देख लिया । अर्थात् उसको समझ के अनुसार इन्द्रिय या मन की क्रिया होते ही ज्ञान हो जाता है, ज्ञान होने में तनिक भी देर नहीं लगती । किन्तु जिन्होंने श्राध्यात्मिक विज्ञान का अध्ययन किया है। उन्हें मालूम है कि ऐसा नहीं होता । छोटी से छोटी वस्तु देखने में भो बहुत समय लग जाता है । मगर वह समय अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण हमारी स्थूलकल्पना शक्ति में नहीं आता । इन्द्रिय या मन से ज्ञान होने में कितना काल लगता है, यह बात नीचे दिखाई जाती है । 1 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ज्ञान के ये चार भेद हैं तो वह ज्ञान किस क्रम से [ प्रथम अध्याय जब हम किसी वस्तु को जानना या देखना चाहते हैं तब सर्व प्रथम दर्शनोपयोग होता है । निराकार ज्ञान को जिस में वस्तु का अस्तित्व मात्र प्रतीत होता है, जैनदर्शन में दर्शनोपयोग कहते हैं । दर्शन हो जाने के अनन्तर अवग्रह ज्ञान होता है । अवग्रह दो प्रकार का है (१) व्यंजनावग्रह और २) अर्थाग्रह । मान लीजिए कोई वस्तु पड़ी है, परन्तु उसे दीपक के बिना नहीं देख सकते । जब दीपक का प्रकाश उसे पड़ता है, तब वह वस्तु की प्रकाशित कर देता है इसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान में जिस वस्तु का जिस इन्द्रय से ज्ञान होता है उस वस्तु के परमाणु इन्द्रियों से लगते हैं । उस वस्तु का और इन्द्रिय सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। व्यंजन का वह अवग्रह -ग्रहण व्यंजावग्रह कहलाता है । यह व्यंजनावग्रह आँख से और मन से नहीं होता क्योंकि आंख और मन का वस्तु के परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं होता, ये दोनों इन्द्रियां पदार्थ का स्पर्श किए बिना ही पदार्थ को जान लेती हैं, अर्थात् अप्राप्यकारी हैं। शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है अर्थात् आंख और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से पहले व्यंजनावग्रह ही होता है । व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होता है । व्यंजनावग्रह द्वारा अव्यक्त रूप से जानी हुई वस्तु को "यह कुछ है" इस रूप से जानना विग्रह कहलाता है अर्थात् अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह की एक चरम पुष्ट अंश ही है । अवग्रह के इन दोनों भेदों में से अर्थावग्रह तो पांचों इन्द्रियों से और मन से भी होता है अत एव उस के छ भेद हैं। व्यंजनावग्रह आंख को छोड़ कर चार इन्द्रियों से ही होता है। वह मन एवं प्रांख से नहीं हो । तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों और मन से ज्ञान होने में पहले अवग्रह होता है । अवग्रह एक प्रकार का सामान्य ज्ञान है । जिसे यह ज्ञान होता है उसे स्वयं भी मालूम नहीं होता कि मुझे क्या ज्ञान हुआ । लेकिन विशिष्ट ज्ञानियों ने इसे भी देखा है, जिस प्रकार कपड़ा फाड़ते समय एक एक तार का टूटना मालूम नहीं होता है लेकिन तार टूटते अवश्य हैं। तार न टूटें तो कपड़ा फट नहीं सकता । इस प्रकार अवग्रह ज्ञान स्वयं मालूम नहीं पड़ता मगर वह होता अवश्य है । अवग्रह न होता तो आगे के ईहा, अवाय, धारणा आदि ज्ञानों का होना संभव नहीं था । क्योंकि बिना अवग्रह के ईहा, बिना ईहा के अवाय और बिना अवाय, के धारणा नहीं होती । ज्ञानों का यह क्रम निश्चित है । For Private And Personal वग्रह के बाद ईहा होती है । यह कुछ है इस प्रकार का वह ज्ञान जिस वस्तु के विषय में हुआ था । उसी वस्तु के सम्बन्ध में भेद के विचार को ईहा कहते हैं । यह वस्तु अमुक गुण की है, इसलिये अमुक होनी चाहिये । इस प्रकार का कुछ कुछ कच्चा या पक्का ज्ञान ईहा कहलाता है ।
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy