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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ १३ यहां यह प्रश्न हो सकता है कि “जायसड्ढे" और "उप्पन्नसड्ढे" में क्या अन्तर है ? ये दो विशेषण अलग २ क्यों कहे गये हैं ? इस का उत्तर यह है कि श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तब वह प्रवृत्त भी हुई, जो श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई इसकी प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती । इस कथन में यह तर्क किया जा सकता है कि श्रद्धा में जब प्रवृत्ति होती है तब स्वयं प्रतीत हो जातो कि श्रद्धा उत्पन्न हुई है । अर्थात् - श्रद्धा प्रवृत्त हुई है तो उत्पन्न हो ही गई है फिर प्रवृत्ति और उत्पत्ति को अनग २ कहने को क्या आवश्यकता थी ? उदाहरण के लिये- एक बालक चल रहा है । चनते हुए उस बालक को देख कर यह तो आप ही समझ में आ जाता है कि बालक उत्पन्न हो चुका है । उत्पन्न न हुआ हो तो चलता ही कैसे ! इसी प्रकार जम्बूस्वामी की प्रवृत्ति श्रद्धा में हुई है, इसी से यह बात समझ में आ जाती है कि उनमें श्रद्धा उत्पन्न हुई थी । फिर श्रद्धा की प्रवृत्ति बतलाने के पश्चात् उस की उत्पत्ति बतलाने की क्या आवश्यकता है ? प्रयोग किया गया है, यह क्यों ? यह था भगवान् गौतम के संशय का अभिप्राय, जो टीकाकार ने भगवती सूत्र में बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में जम्बू स्वामी को जो संशय हुआ उससे उन को क्या अभिमत था ? इसके उत्तर में टीकाकार मौन हैं । कसना-उद्यान में पर्यटन करने से जो कल्पना-पुष्प चुन पाया हूँ, उन्हें पाठकों के कर कमलों में अर्पित कर देता हूँ। कहां तक उनमें औचित्य है ? यह पाठक स्वयं विचार करें । ___ श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र के अनन्तर श्री विपाक सूत्र का स्थान है । प्रश्न व्याकरण में ५ श्रास्रवों तथा ५ संवरों का सविस्तर वर्णन है । विपाक सूत्र में २० कथानक हैं, जिन में कुछ अाश्रवसेवी व्यक्तियों के विषादान्त जीवन का वर्णन है और वहां ऐसे कथानक भी संकलित हैं, जिन में साधुता के उपासक सच्चरित्री मानवों के प्रसादान्त जीवनों का परिचय कराया गया है। जब श्री जम्बू स्वामी ने प्रश्नव्याकरण का अध्ययन कर लिया, उस पर मनन एवं उसे धारण कर लिया, तब उनके हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेंने प्राप्तव और संवर का स्वरूप तो अवगत कर लिया है परन्तु मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि कौन पासव क्या फल देता है ? अानव-जन्य कर्मों का फल स्वयमेव उदय में आता है या किसी दूसरे के द्वारा ? कर्मों का फल इसी भव में मिलता है, या परभव में ? कम जिस रूप में किये हैं उसी रूप में उन का भोग करना होगा, या किसी अन्य रूप में ? अर्थात् यदि यहां किसी ने किसी की हत्या की है तो क्या परभव में उसी जीव के द्वारा उसे अपनी हत्या करा कर कम का उपभोग करना होगा, या उस कर्म का फल अन्य किसो दुःख के रूप में प्राप्त होगा ? इत्यादि विचारों का प्रवाह उन के मानस में प्रवाहित होने लगा। जिसे "जातसंशय" पद से सूत्रकार ने अभिव्यक्त किया है । "रहस्य तु केवलिगम्यम्।” श्रद्धेय श्री घासी लाल जी म० अपनी विपाकसत्रीय टीका में भी विपाकमूलक संशय का अभिप्राय लिखते हैं । उन्हों ने लिखा है जात-संशय:-जातः प्रवतः संशयो यस्य स तथा । दशमांगे प्रश्नव्याकरणसत्रे भगवत्प्रोक्तमासव-संवरयोः स्वरूपं धर्माचार्यसमीपे श्रुतं तद्विपाक-विषये संशयोत्पत्या जातसंशय इति भावः । अर्थात् श्री जम्बू स्वामी ने पहले भगवान् द्वारा प्रतिपादित दशमांग प्रश्नव्याकरण नामक सत्र में प्रासव और संवर के भाव श्री सुधर्मा स्वामी के पास सुने थे, अतः उनके विपाक के विषय में उन्हें संशय की उत्पत्ति हुई। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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