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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहला हिस्सा 1 उस्ताद - समुद्र कभी नहीं बढ़ेगा जितना पानी उस में नदियों का आवेगा उतना ही सदा सूरज की गर्मी से भाफ हो कर उड़ता रहेगा || समुद्र का पानी इतना खारा कि हर्गिज़ पीने के काम में नहीं आसक्ता है । हां जो उस को आग पर किसी बरतन में जला डालो तो नमक अलबत्ता अच्छा सफ़ेद हाथ लगता है ॥ समुद्र स्थिर कभी नहीं रहता उस की लहरें छ घंटे ज़मीन की तरफ़ आती है। और फिर छ ही घंटे उलटी चली जाती हैं | इसी चढ़ाव उतार को जुआरभाटा कहते हैं । वह पच्चीस घंटे में दो बार आता है और सबब उस का चांद बतलाते हैं | क्योंकि पूर्णमासी के दिन समुद्र को लहरें बहुत ऊंची उठती हैं । जहाजवालों को कभी ऊपर कभी तले पहुं चाती हैं | जहाज़ पाल के ज़ोर से चलते हैं । और पतवार से मुड़ते हैं | लेकिन दुखानी यानी धुएं के जहाज़ पालों की परवा नहीं रखते। सामने को हवा से भी कभी नहीं रुकते ५६ जहाज़ वालों को चारों तरफ समुद्र ही ममुद्र दिखलायी देता है । ऊपर आसमान और नीचे पानी रहता है । तारे भी सदा दिखलायी नहीं देते हैं । एक निरे कंपास यानी ध्रुवमत्स्य के सहारे से अपनी गह चले जाते हैं । अगर द्वारा भी राह भूलें । पानी में छिपे हुए पहाड़ों से टकरा कर उन के जहाज़ टुकड़े टुकड़े हो जावें ॥ यह ध्रुवमत्स्य घड़ों को शकूल पर बनता है । उस में चुम्बक को एक सुई ऐसी होती है कि उम का मुंह सदा उत्ता को रहता है । इसी से उत्तर दक्खन पूरब पच्छम और उन के कोने जान लेते हैं । और जिवर जी चाहता है वे टपाल उडाये या धूम के नये आग जलाये चले जाते हैं i For Private and Personal Use Only
SR No.020894
Book TitleVidyankur
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaja Shivprasad
PublisherRaja Shivprasad
Publication Year1886
Total Pages89
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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