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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शोधन त्रयीः www.kobatirth.org चाहिए। विचारपोथी ૪૪૦ (१) विचारशोधन, (२) वृत्तिशोधन, (३) वर्तनशोधन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४१ प्रतिकार कहते ही उसमें अपुरस्कार गृहीत समझना ६५. ४४२ साधु-संतों को भी हम 'भोग्य' बनाना चाहते हैं । लेकिन वै हमें हजम होने लायक नहीं होते, इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं होता । ४४३ पिछला 'पशु' पसन्द नहीं आता, अगला मनुष्य अभी बन नहीं है । बीचकी इस भयानक साधकावस्थाको मैं साधनाका नृसिंहावतार कहता हूं । ४४४ मुझे कुहरा दूसरी तरफ दिखाई देता है । दूसरेको कुहरा मेरे पास नज़र आता है । वास्तव में कुहरा सभी तरफ है । मुझे दूसरेकी स्थितिमें सन्तोष दिखाई देता है । दूसरेको मेरी स्थिति में सन्तोष दिखाई देता है । वास्तव में सन्तोष सर्वत्र है । परन्तु उसकी पहचान-भर होनी चाहिए । ४४५ जीवन में भय रखने से मरण निर्भय होगा । ४४६ छुटपन में गणेशजीका विसर्जन करते समय चित्तपर बड़ा प्रघात होता था । इतने प्रेमसे जिसकी स्थापना की, इतने दिन पूजा की, उसे पानी में डुबो देनेकी कल्पना सही नहीं जाती थी । For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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