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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी ३२५ उत्तराभिमुख क्यों ? ऋषियोंका स्मरण तथा हिमालय और ध्रुवका चिन्तन। (यहां यह मान लिया है कि हम हिन्दुस्तान में हैं)। ३२६ भक्तको कर्मयोगमें रुचि होती है, क्योंकि उसमें उसकी उपासनाकी भावना होती है। - -३२७ कर्मठ उपासनाका भी 'कर्म' बनाता है। भक्त कर्मकी भी उपासना बनता है। ३२८ परकाया-प्रवेश याने दूसरेका मानस-शास्त्र जानना। ३२९ अहंकारको लगता है, अगर 'मैं' नहीं रहा तो दुनियाका काम कैसे चलेगा ? सच तो यह है कि मेरे ही क्यों, बल्कि सारी दुनियाके न रहनेपर भी दुनियाका काम चल सकता है। ३३० स्वकर्ममें उपासनाकी दृष्टि न रही तो भी स्वकर्म अभ्युदय साधेगा; उपासनाकी दृष्टि कायम रही तो प्रत्यक्ष मोक्ष प्राप्त करा देगा। ३३१ आत्मा एक। माया शून्य । एक और शून्यके संयोगसे असंख्य संसार । यही लिंगोपसना है। "मेरी स्थितिमें तुम क्या करोगे ?" "तू करता है वही ; क्योंकि तेरी 'स्थिति' में तेरो 'बुद्धि' आ ही जाती है।" For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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