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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी २६३ श्रद्ध+प्रज्ञा-+-वीर्य सत्य । २६४ कल्याण सार्वजनिक है। वह व्यक्तिका 'निजी' नहीं हो सकता। पहले प्रेम, फिर त्याग, अन्तमें शान्ति । सत्य याने सभी गुणोंका 'गुनिया' । २६७ ___भक्तके पास ज्ञान न होनेपर भी नम्रता होनेके कारण ज्ञान प्राप्त करना उसके लिए सहज है। शरीर निसर्गतः जैसे-जैसे जीर्ण होता जाय वैसे-वैसे प्रज्ञाकी कला बढ़ती जानी चाहिए। और जिस क्षण शरीर छूटे उस क्षणमें प्रज्ञाकी पौरिणमा होनी चाहिए। इसे गीता शुक्लपक्षका मरण कहती है । इसके विपरीत शरीर के साथ प्रज्ञा क्षीण होते हुए मरण पाना कृष्णपक्षका मरण है । प्रश्न-ज्ञानेश्वरी तुम्हें कितनी प्रिय है ? उत्तर-इतनी कि दोष दिखाना हो तो भी ज्ञानेश्वरीके ही दिखाता हूं। २७० दंभ सूक्ष्म है । वह ज्ञातरूपसे ही रहता है, ऐसा नहीं है। अज्ञातरूपसे भी रह सकता है। बहत बार मनुष्य अनजानमें भी दंभ करता है। २७१ 'स्वप्न क्या दिखाता है ?'-(१) सृष्टिका मिथ्यात्व । For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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