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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी ३५ २१७ कोई नाटककार जिस प्रकार स्वयं नाटक लिखकर उसके प्रयोगमें भी स्वयं शामिल हो जाता है, वही बात ईश्वरकी है। ईश्वर विश्वरूप नाटक रचकर, उसमें प्रात्माका पार्ट स्वयं करता है । 'तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्' । २१८ मनुष्य और पशुमें मुख्य विशेषता वाणीकी है। यदि पशुमें मनुष्य के जैसी वारणीकी कल्पना की जा सके तो उसी क्षण उसमें मनुष्यके समान विचारकी भी कल्पना की जा सकेगी। इसीलिए वारणी पवित्र रखना मनुष्यका स्वाभाविक कर्तव्य है। २१६ वानप्रस्थाश्रम याने अनुभव, स्थिर वृत्ति और इंद्रिय-निग्रह। २२० आत्मप्रयत्न, वृद्धोंका आशीर्वाद, सन्तोंकी संगति, गुरुकृपा और ईश्वरी इच्छा -ये परमार्थके साधन हैं। २२१ ईश्वरकी सत्ता याने आत्माकी अमरता, याने धर्मकी नित्यता, याने जीवन की प्रानन्दमयता । २२२ अर्धोन्मीलित दृष्टि' याने : 'भीतर हरि, बाहर हरि' 'ब्रह्म-कर्म-समाधि' 'त्यक्तेन भुञ्जीथाः 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।' 'जाणोनि नेणते करी माझे मन' अर्थात्'जानता हुआ मेरा मन न जानता कर ।' 'सन्त हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ।' For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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