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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी आई। शेर पीछा कर ही रहा था। साधु प्रार्थनाकी जगह बैठ गया और मुझसे कहने लगा, "अब आगे मैं नहीं भागंगा। तेरी तू सम्हाल ले ।" मैं भी कांपते-कांपते लेकिन निश्चयसे उसके पास बैठा । इतनेमें शेर गायब हो गया और स्वप्न भी गया। ७०६ निर्गुण-सगुण उपास्य-उपासक मैं-तू सज्जन-दुर्जन जड़-चेतन ये पांच भेद लोप होनेपर संपूर्ण अद्वैत सिद्ध होता है। ७१० इच्छा, प्रयत्न, कृपा प्राप्ति । ७११ कर्म>अकर्म परन्तु, ज्ञान+कर्म=ज्ञान+अकर्म .:. ज्ञान-00 (अनन्त) ७१२ वेदान्तके समान अनुभव नहीं। गणितके समान शास्त्र नहीं। रसोईके समान कला नहीं। ७१३ गुरु अव्यक्त-मूर्ति है। चाहे शब्द-मूर्ति कह लीजिये। ७१४ देहासक्ति, ज्ञानासक्ति, दयासक्ति । चित्तशुद्धिकारकके सिवा और किसी भी रूप में कर्मकी तरक देखना मुझे नहीं सुहाता। ७१५ For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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