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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८१ ) यांते संन्यासी अपरोक्षज्ञानीकी स्वार्थ वा अन्यार्थ कर्मों विषे प्रवृत्ति बनती नही है ॥ ६॥ और गृहस्थ अपरोक्षज्ञानी जो है सो कमविषे प्रवृत्ति करेगा यह दूसरा पक्षभी नहीं बनता. काहेते, जो अनेक जन्मोंविषे कृतपुण्योंके प्रभावसे तथा ईश्वरानुग्रहसें जान लीयाहै. यह संसार स्वप्नसमान है हम सच्चिदानंद ब्रह्म हों जब एसे निर्विघ्न ब्रह्मात्मैक्य ज्ञानको उत्पत्ति होवे है तब गृहस्थभी याज्ञवल्क्य सदृश एषणा त्रयसे विमुक्त हवा ब्रह्मानंदमे मग्न रहताहै कबीभी मै ब्राह्मण हुँ मेरे यह मातापुत्रादिक है इस रीतिसे संसारबंधनमें आतक्ति कर दुःखी नही होता ॥ तिसमे आसक्तिका कारण समल नाश होय गया है यांते आसक्ति नही करता किंतु ब्रह्मानंदमें मग्न रहिताहै, संसारासक्तिका का. रण अहं ममाभिमान होता है सो यह दोनोही ज्ञानाग्निसे दग्धकरके फिर तिसमे लंपट नहीं होता. कादेते. मै ब्रह्मसच्चिदानंद स्वरूपहुं तथा मै ब्राह्मणक्षत्रिय हूं एसे आत्म अनात्म ज्ञान दोनो तेज ति. मिरतुल्य, एकबुद्धिमे निवास करनेको समर्थही नही होइ सकते यांते ज्ञानरूपखङ्गसे देहाभिमानग्रंथीका छेदन करनेवाले गृहस्थज्ञानीको संसारासक्ति बनती ही नही किंतु संसारका त्यागही करता है For Private and Personal Use Only
SR No.020885
Book TitleVedant Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVigyananand Pandit
PublisherSarasvati Chapkhanu
Publication Year1837
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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