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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ पारिभाषिकः । जो अनुदात्तेत् चिन्ह किया है उन का सन् के विना कहीं पृथक् प्रयोग भी नहीं होता इसलिये गुप् आदि धातुओं का अनुदात्तत् सन्नन्त का विशेषक हो के | अर्थात् गुप आदि सबन्तों को भी अनुदात्तत् मान कर पात्मनेपद हो (जुगुपसते, मौमांसते ) यहां आत्मनेपद हो गया और जुगुपसयतिवा जुगुपसयते मौमांसयति, वा मौमांसयते यहां णिजन्त समुदाय को णिच् छोड़ देता है इसलिये परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों होते हैं तथा पण धातु अनुदात्तत् है उस के (पणायति) प्रयोग में आय प्रत्ययान्त से परस्मैपद ही होता है क्योंकि आत्मनेपद तो व्यवहार अर्थ में और एकपक्ष में आईधातुक विषय में चरितार्थ है(शतस्य पणते) मणायां. चकार । पेणे। पेणाते । और आय प्रत्ययान्त समुदाय को पण छोड़ भी देता है। इसलिये आय प्रत्ययान्त से आत्मनेपद नहीं होता और लोक में भी बैल को सो अवयव में दाग देते हैं तो वह चिन्ह उस बैल का विशेषक हो जाता है कि यह अति बैल है उसी अवयव का और सब साथ के बैसों का भी विशेषक नहीं होता ॥ १११ ॥ ( अपृक्त एकाल प्रत्ययः ) इस सूत्र में एक ग्रहण का यही प्रयोजन है कि (दविः, जाग्यविः) यहां वि प्रत्यय की अपतसंज्ञा नहीं सो जो एकग्रहण न कर ते और अल प्रत्यय कहते तो भी अनेकाल में नहीं होती फिर एकग्रहण व्यर्थ हुआ इस से यह ज्ञापकसिद्ध परिभाषा निकली। ११२-वर्णग्रहणे जातिग्रहणम् ॥ अ० १।२।११॥ वर्ण के ग्रहण में वर्ण जाति का ग्रहण होता है इस से एकग्रहण तो सार्थक होगया कोंकि अलमात्र पढ़ते तो जातिग्रहण होने से अनेक अलों का ग्रहण होजाता फिर एकग्रहण से नहीं हुआ और ( धोपसति, धिपसति) यहां दम्भ धात के दो हलों में भी हलजाति मानकर (हलन्ताच) सूत्र से इक समीप हल मान के सन् प्रत्यय कित् होजाता है । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ११२ ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतविरजानन्द सरस्वतीस्वामिनां शिष्यण श्रीमह यानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते वेदाङ्गप्रकाशे दशमोऽष्टाध्याय्यांनवमश्च पारिभाषिको ग्रन्थोऽलङ्कृतिमगात् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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