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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ पारिभाषिकः ॥ जैसे ( अहो आश्चर्यम्, उताहो मे ) इत्यादि में श्रीकारान्त निपात की प्रग्टह्य - संज्ञा हो कर प्रकृतिभाव हो जाता है वैसे ( अतिरस्तिरः समपद्यत, तिरोऽभवत् ) यहां विप्रत्ययान्त लाक्षणिक ओकारान्तको निपातसंज्ञा होकर प्रग्टद्यसंज्ञा हो. जावे तो प्रकृतिभाव होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है ॥ ९१ - लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् ॥ अ०१/१/१५ ॥ ४६ लक्षण नाम जो सूत्रसे कार्य होकर बना हो वह लाक्षणिक और जो खाभाविक है वह प्रतिपदोक्त कहाता है । उन लाक्षणिक और प्रतिपदोक्त के बौध में जहां संदेह पड़े वहां प्रतिपदोक्त को कार्य हो और लाक्षणिक को नहीं इस से (तिरोऽभवत् ) यहां लाक्षणिक अकारान्त निपात की प्रग्टद्यसंज्ञा होकर प्रकतिभाव नहीं होता । तथा (आशिषा तरति श्राशिषिकः ) यहां इस भाग के लाक्षणिक होने से ( इसुसुक्तान्तात्कः ) सूत्र से ठक् प्रत्यय को ककारादेश नहीं होता इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ६१ ॥ " , इस परिभाषा के होने में ये दोष हैं कि जो (दाधाघ्वदाप् ) सूत्र से दाधा की संज्ञा होती हे सो ( देङरक्षणे, दोश्रवखण्डने धेट् पाने ) आदि की घु संज्ञा नहीं होनी चाहिये क्योंकि ( डुदाञ् डुधाञ् ) प्रतिपदोक्त और देङ् आदि लाक्षणिक हैं इस संदेह को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है ॥ ९२ - गामादाग्रहणेष्वविशेषः ॥ अ० १ । १ । २० ॥ For Private And Personal Use Only गा, मा, दा ये तीनों जिन सूत्रों में ग्रहण किये हों वहां सामान्य करके araणिक और प्रतिपदोक्त दोनों का ग्रहण होता है इस से ( देङ् ) आदि लाक्षणिक धातुओं की भी घु संज्ञा हो जाती है ( प ) धातु में पित् पढ़ने का यही प्रयोजन है कि जो दाप को घु संज्ञा का निषेध हे सो दे मात्र के पढ़ने से प्राप्त नहीं था इसलिये पित् किया सो जो लाक्षणिक है मात्र की घु संज्ञा प्राप्त नहीं थी तो निषेध के लिये पित् क्यों पढ़ा। इस से यह आया कि लाच. fun को भी घु संज्ञा होती है (घुमास्यागापाजहातिसां हलि ) यहां मा करके मेड़ आदि को भी ईकारादेश होता है ( मौयते, मेमोयते ) इत्यादि गा करके आदि भी लिये जाते हैं ( गौयते, जेगीयते ) इङ् धातु के स्थान में जो गाड़ आदेश होता है उस का भी ग्रहण होता है जैसे ( अध्यगौष्ट, श्रध्यगीषाताम् ) इत्यादि बहुत प्रयोजन हैं ॥ ८२ ॥ ( वृद्धिरादैच् ) सूत्र में आ, ऐ, औ, इन तीनों की वृद्धिसंज्ञा होती है । इस में यह संदेह होता है कि जो तीनों वर्णको एक साथ वृद्धिसंज्ञा होजावेतो (कारकः) . आदि में एक साथ तीनों वर्ण वृद्धि होने चाहिये । इसलिये यह परिभाषा है । ९३ - प्रत्यवयवं वाक्यपरिसमाप्तिः ॥ अ० १ । १ । १ । वाक्य की समाप्ति प्रत्येक अवयव के साथ होती है अर्थात् जहां समुदाय को
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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